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________________ 36 जनविद्या ही एक वणिकवर खड़े हो गये और राजा से परम दयालु मुनि को मारने के लिए मना किया। साथ ही साथ कहा कि ऐसे तपस्वियों को तो पापको प्रणाम करना चाहिये । मुनिराज के पास अनेकों ऋद्धियां और सिद्धियां हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं जिससे वन के भयानक पशु सर्पादि उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं । आप ही देखिये कि आपके खूस्वार कुत्ते मुनिराज के समीप कसे शांत बैठे हैं। राजन् ! यह परम पूज्य मुनि सदत्त नाम के हैं जो दीक्षा से पहिले कलिंग देश के राजा थे । ऐसा सुन राजा ने सभक्ति मुनि की वन्दना की। राजा के पूछने पर मुनिवर ने राजा को पूर्व भवों की कथा सुनाई तो राजा का हृदयपरिवर्तन हो गया। .... राजा ने अपने को सुधारने का संकल्प किया। इससे उसने मुनिराज से प्रार्थना की कि वे उसे दीक्षित कर अपना शिष्य बनावें । मुनिराज ने कहा-राजन् ! पहिले अपना राज्य राजकुमार को सौंपो व जितने उलझे काम हैं उन्हें सुलझाकर, अपने निकट सम्बन्धियों से अनुमोदना प्राप्त कर निर्द्वन्द्व हो मेरे पास प्रावो फिर तुम्हें उचित दीक्षा दूंगा। फलतः अभयरुचि ने कहा कि राज्य का भार मुझे सौंपा गया और मेरे पिता वन में उन मुनि के पास आत्मोद्धार हेतु चले गये। मेरा मन भी राज काज में नहीं लगता था। मैं हमेशा उदासीन रहता था, भोग-विलास में रुचि नहीं थी। मैंने अपने छोटे भाई को राज्य सौंप दिया और जब राजभवन से दीक्षार्थ निकला तो मेरी बहिन राजकुमारी अभयमति भी दीक्षार्थ मेरे साथ हो ली। बस, इस प्रकार हम दोनों की उतार-चढ़ाव भरी ये जीवनगाथाएँ हैं । कथा सुनकर राजा मारिदत्त का कठोर हृदय भी पिघल गया। उसने मेरे गुरु मुनि के दर्शन की सदिच्छा व्यक्त की और मुझसे गुरु के दर्शन कराने की प्रार्थना की। मैं उसे अपने मुनि महाराज के पास ले गया। मुनिराज ने राजा मारिदत्त के पूर्व-जन्म जब बताये तो वह गद्गद हो गया व दीक्षा ग्रहण कर ली। फिर क्या था, परम मुनि के प्रभाव से राजमहल के बालक-बालिकानों तक ने कठोर व्रत लिये । उनके राजगुरु, चंडीदेवी के पुजारी व भक्तों तक ने दीक्षा ली, समूचा हिंसा का दृश्य दया और त्याग में बदल गया। प्रिय बटुको ! इसी कथानक के पुष्प-माल को कवि पुष्पदंत ने अपनी पटुता से ऐसा गूंथा कि शब्दावली के सुन्दर कुसुमों से सज्जित, साहित्य अलंकारों से मंडित, शांति रस से सराबोर तथा वैराग्य और अहिंसा की सुरभि से वह सम्पूर्ण काव्यमाल गमगमाती है। ऐसी कथानक-पुष्प-माल सदियों से विद्वज्जनों को प्रिय लगी है और लगती रहेगी। मैंने प्रारम्भ में ही व्यक्त कर दिया था कि जसहरचरिउ लघु काव्य है। इस काव्य में केवल 4 (चार) संधियां और 138 कडवक हैं तथा 2114 पद हैं। इसमें प्रत्येक कडवक का प्रारम्भ दुवई-छंद से हुआ है। कडवक के अन्त में घत्ता का ध्रुवक दिया गया है। संधि 2, 3, 4 के प्रारम्भ में कवि के प्राश्रयदाता श्री नन्न की प्रशंसा संस्कृत पद्य में की गई है। ___एक ब्रह्मचारी (खड़े होकर) बोला- "गुरुदेव ! जानने की इच्छा है कि क्या यशोधर पाख्यान कवि पुष्पदंत की काल्पनिक कृति है या इसका कुछ प्राधार भी है ?"
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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