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________________ 78 (1) ( 2 ) ( 3 ) जैन विद्या महाकवि पुष्पदंत की निम्न तीन रचनाएं उपलब्ध हैं- तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकार (त्रिषष्टिमहापुरुषगुणालंकार) या महापुराण गायकुमारचरिउ ( नागकुमार चरित्र ) जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र ) अपभ्रंश के अप्रतिम महाकवि पुष्पदंत के इन ग्रंथों के प्रालोक में ही उनकी काव्यप्रतिभा के सम्बन्ध में प्रति संक्षेप में विचार व्यक्त किये गये हैं गायकुमारचरिउ ग्रंथ के आरम्भ में कवि ने काव्य तत्त्वों का बड़ा ही अच्छा वर्णन प्रस्तुत किया है । कवि रूपक अलंकार प्रस्तुत करता हुआ लिखता है - दिति । धरति । संभरंति । दुविहालंकारें विष्फुरंति लीलाको मलई पयाइँ महकवरिल रि संचरंति बहुहावभावविन्भम सुपसत्यें प्रत्यें दिहि करंति सव्वš विष्णारण रीसेसदेसभा स चंवति लक्खगईं विसिट्ठइँ दक्खवंति । श्रहरु दछंदमग्गेरण जंति पाणेहि मि दह पारणाइँ लेंति । वह मि रसेहिँ संचिज्जमारण विग्गहतएण गिरु सोहमारग । पुल्लि वुवालसंगि जिरणवयरण विणिग्गय सत्तभंगि । वायररणवित्ति पाय डियरणाम पसियउ मह देवि मरणोहिराम | गाय 1.1.3-10 - वह सरस्वती देवी मुझ पर प्रसन्न होवे जो शब्द और अर्थ इन दोनों प्रकार के अलंकारों से शोभायमान है, जैसे स्त्री अपने शीलादि से आभ्यन्तर गुरणों तथा वस्त्राभूषणादि बाह्य अलंकारों से सुन्दर दिखाई देती है, जो लीलायुक्त कोमल सुबन्त तिङन्तादि पदों की दात्री है, जैसे स्त्री विलासपूर्ण कोमल पदों से चलती है, जो महाकाव्यरूपी गृह में संचरण करती है, जो विविध हाव-भाव और विभ्रमों को धारण करती हैं, जो सुप्रशस्त अर्थ से आनन्द उत्पन्न करती है, जैसे सद्गृहिणी अच्छा धन संचय कर पति को आश्वस्त करती है, जो समस्त देश- भाषाओं का व्याख्यान करती है, जो संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के विशेष लक्षणों को प्रकट करती हैं, जैसे सौभाग्यवती स्त्री के कलशादि सामुद्रिक चिह्न दिखाई देते हैं, जो विशाल मात्रादि छन्दों द्वारा विचरण करती है, जैसे कुलवधू अपने सास-ससुर आदि श्रेष्ठ पुरुषों के अभिप्रायानुसार आचरण करती है, जो काव्य-शैली के श्लेष प्रसादादि दस प्रारणभूत गुणों को ग्रहण करती है, जैसे स्त्री पंचेन्द्रियादि दस प्राणों को धारण करती है, जो शृंगारादि नवरसों से संसिक्त होती है, जैसे गृहिणी नवीन घृत, तैलादि रसों से भरपूर रहती है, जो तत्पुरुष कर्मधारय और बहुब्रीहि नामक तीन समासों अथवा समास, कारक और तद्धित रूप तीन विग्रहों से शोभायमान होती है, जैसे स्त्री ऊर्ध्व मध्य एवं अधो शरीररूपी त्रिभंगी से सौन्दर्य को प्राप्त होती है, जो प्राचारांग आदि
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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