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________________ महाकवि पुष्पदंत काव्यप्रतिभा -डॉ० वृद्धिचन्द्र जैन अपभ्रंश भाषा के मुकुटमणि, अभिमानमेरु महाकवि पुष्पदंत द्वारा प्रणीत साहित्य साहित्य-जगत् की बहुमूल्य निधि है। जैन ग्रंथ भण्डारों में इस अपभ्रंश भाषा का साहित्य प्रचुर मात्रा में भरा पड़ा है । यह बहुत समय तक लोक-भाषा तो रही ही साथ ही इसको राज्याश्रय भी प्राप्त था। इसका पता हमें राजशेखर की काव्यमीमांसा के इस कथन से भलीभांति ज्ञात होता है कि राजसभाओं में राजासन के उत्तर की ओर संस्कृतकवि, पूर्व की ओर प्राकृतकवि, पश्चिम की ओर अपभ्रंशकवियों को स्थान दिया जाता था। पुष्पदंत का परिवार में प्रचलित नाम "खण्ड" या "खण्डु" था । "अभिमानमेरु", "अभिमानचिह्न," "काव्य-रत्नाकर", "कविकुल-तिलक", "सरस्वती-निलय", "काव्य-पिसल्ल" (काव्यपिशाच) इत्यादि उनकी पदवियां थीं। इन पदवियों से उनके व्यक्तित्व की कल्पना सहज में ही की जा सकती है।
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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