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जैन विद्या
महाकवि पुष्पदंत की रचनायें इस प्रकार की सामग्री से प्रोत-प्रोत हैं कि उनमें महाकवि का काव्यत्व, दार्शनिक का चिंतन और अध्यात्मवेत्ता का गुह्य रहस्य भरा हुआ है । समय के साथ कदम मिलाने की अपूर्व क्षमता और प्रतिभा से उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सना हुआ है। जैन धर्म को उन्होंने कुछ नया आयाम देने का जो प्रयत्न किया है वह तात्कालिक परिस्थितियों के संदर्भ में नितांत आवश्यक था। प्रस्तुत संक्षिप्त लेख में उनके गहन विचार और पर्यवेक्षण शक्ति का आभास मात्र उपस्थित किया जा सकता है । आवश्यकता है, उनके समग्र अध्ययन की जिससे सांस्कृतिक, भाषिक और दार्शनिक नये तथ्य उभर कर सामने आयें और अपभ्रश साहित्य की बेजोड़ विशेषताओं को उद्घाटित कर नया दिशाबोध दे सकें।
1. गायकुमारचरिउ, 3.2 2. वही, 9.4,
वही, 2.13 संजमु तवचरणू णियमुद्धरणु धम्मु जि मंगलु वुत्तउ ।
वही, 2.9 णं जणेउ अहिंसए धम्मु परु । 3. वही, 8.13, यह कथन पाक्षिक श्रावक की दृष्टि से किया गया है । 4. वही, 4.2 5. वही, 6.10 6. वही, 7.14, शास्त्रीय परिभाषा में बंधे धर्म को देखिये ।
वही, 9.12 7. जसहरचरिउ, 2.11
णायकुमारचरिउ, 8.13 8. णायकुमारचरिउ, 9.21 9. जसहरचरिउ, 4.9 10. वही, 1.24 11. रणायकुमारचरिउ, 3.7 12. जसहरचरिउ, 4.8, 4.15