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________________ जनविद्या 49 राजसेवकों द्वारा दोनों ही देवी के मन्दिर में राजा के सम्मुख लाये गये । उनके आते ही राजा का क्रोध काफूर हो गया । शारीरिक संगठन से उनकी उच्चकुलोत्पन्नता जानकर या साधना से प्रसूत उनकी मुखमण्डलीय आभा देखकर या भावों से स्फुरायमान उनका मधुर सम्बोधन सुनकर वह प्रभावित हुआ और विचारने लगा कि वास्तव में ये कौन हैं ? नाना संभावनाएँ भी की पर अन्त में कुमार से ही निवेदन किया, “हे कुमार ! तुम मुझे पापों को क्षय करनेवाली, कानों को प्रिय तथा सुखदायी अपनी कथा सुनायो ।"4 . प्रकृत में उक्त कथांश के सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि संयोग और अनुभूति की अपेक्षा से प्रात्मा के दो स्तर निर्धारित किये जा सकते हैं-पहला स्तर संसारी आत्माओं का और दूसरा मुक्त आत्माओं का । संसारी आत्माओं की अनुभूतियाँ रागादिजन्य या रागसहकारिणी होती हैं तथा सहचारी संयोग भी नाना विचित्रताओं को लिये हुए होते हैं । मुक्त आत्माओं की अनुभूतियां सदैव सदृश और वीतरागानन्दजन्य होती हैं तथा सहचारी संयोगों का प्रभाव या अप्रभाव होता है । जसहरचरिउ के सन्दर्भ में इसकी स्पष्टाभिव्यक्ति के लिए निम्न तथ्य पर्यवलोकनीय हैं-- (1) जसहरचरिउ में चतुर्विशति तीर्थंकरों की गुणमूलक स्तुति का समावेश होने से मुक्त आत्माओं का मूल्यांकन परिगणन परिलक्षित होता है। (2) कवि ने सुदत्त मुनि एवं उनके संघस्थ साधुओं, क्षुल्लक आदि का प्रसंगोपात्त दिग्दर्शन कराते हुए संसार से उदास, संयम की साधना में संरत, वासनाओं से विरत मुक्ति के लिए साधक आत्मानों का परिचय दिया है। संसारोच्छेद के प्रयत्न में संरत होने पर भी तदवस्थित होने से इन्हें संसारी आत्माएँ कहा जाता है । (3) कवि ने राजा मारिदत्त, भैरवानन्द एवं अन्य भी तदनुगामी प्राणियों का उल्लेख कर सांसारिक विलासों में प्रासक्त, मुक्ति से विरक्त, मुक्ति में रत अर्थात् सम्प्रति मुक्ति के लिए बाधक आत्माओं का परिचय कराया है। संसार प्रवर्धन के प्रयास में रत होने से इन्हें संसारी आत्माएं ही जानना चाहिये। (4) क्रूरता एवं सरलता, हिंसा एवं अहिंसा, क्षमा एवं क्रोध आदि के परिणाम तथा भोग और योग की प्रवृत्तियां आत्मा में ही संभव हो सकती हैं चाहे वह मनुष्य पशु, पक्षी आदि किसी भी रूप में ही क्यों न हो ? जसहरचरिउ में यह तथ्य शतशः अनुकरणीय हुआ है। जैनदार्शनिकदृष्टि संसारी और मुक्त के रूप में उभयविध आत्माएँ स्वीकारती है । तदनुसार परमात्मा के अभिधान से मुक्त-आत्माओं का परिगणन है तथा संसारी आत्माएँ बहिरात्मा और अन्तरात्मा के व्यपदेश से वर्गीकृत हैं। जसहरचरिउ में परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा आदि प्रात्मा के त्रिविधरूपों का परिभाषात्मक स्पष्ट विवेचन तो नहीं है पर तीर्थंकरों, सिद्धों और जिनेन्द्रों के गौरव गुणगान से परमात्माओं का, सुदत्त आदि मुनियों एवं
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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