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________________ जैन विद्या हिंसा के सरगम से मशगूल वातावरण को श्रहिंसामय बनाने का संदेश देने में कोई भी महापुरुष, मनीषी या साहित्यकार श्रात्मा के अस्तित्व को नकार नहीं सकता, उसकी चर्चा वार्ता से बच नहीं सकता। श्रात्मा संबंधी विचार स्वयमेव उसके चिन्तन में प्राण बन प्रत्यक्ष या परोक्ष सरणि में प्रवाहित होने लगते हैं। महाकवि पुष्पदंत इसके अपवाद नहीं हैं। 48 "पापप्रेरक और धन-प्रधान कथायें तो खूब कही, अब धर्म सम्बन्धी कथा कहता हूं जिससे मुझे मोक्ष सुख मिले" कवि की यह भावना श्रात्मा संबंधी विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उसकी भावभूमि का निदर्शन है क्योंकि मोक्षसुख के लिए कारणभूत धर्मं श्रात्मसीमाओं से परे होता ही नहीं है । श्रध्यात्म-शास्त्रों जैसी आत्मा की सूक्ष्म और साक्षात् चर्चा जसहरचरिउ में नहीं है पर परोक्षरूप में सुनिश्चित ही प्रबल संस्कार हैं । "चतुर्विंशति तीर्थेश वन्दना से अपने को गुणानुरागी बनाते हुए कवि यौधेयदेशस्थ राजपुर नगर के राजा मारिदत्त को समुचित कविकलाचातुर्य से प्रकट करता है। नगर में समागत स्वप्रशंसक कौलाचार्य भैरवानंद की बहुत सी बातें उसके कानों में पड़ती हैं। वह उन्हें राजदरबार में बुलवाता है तथा यथोचित आदर-सत्कार और वार्तालाप के अनन्तर प्रकाशगामिनी विद्या से स्वयं भूषित होने हेतु निवेदन करता है। भैरवानंद कहता है कि राजन् ! यदि तुम लोगों की बातों में न आओ और आगमोक्त रीति से अर्थात् प्रत्येक जाति के जलचर, थलचर प्रोर नभचर जीवों के नर-मादा, युवायुगलों के बलिदान से कुलदेवी चण्डमारी को प्रसन्न करो तो तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो जायगी, तुम्हारे खड्ग में ज्योतिर्मयी जयश्री श्रा बसेगी, तुम अमर हो जानोगे इत्यादि । कौलाचार्य की बात को इदमित्थं सत्य मानकर उसने वैसा ही करने के लिए अपने अनुचरों को आदेश दे दिया। फिर क्या था ? चण्डमारी देवी कास्पद सर्वविध प्राणियों के नर-मादा युगलों से भर गया पर नर- मिथुन की कमी रही । यह कमी देख राजा लाल-लाल आँखें करता हुआ बोला -- "रे सैनिकप्रवर चण्डकर्म ! तू शीघ्र ही अच्छे मनुष्य जोड़े को ला ।" आज्ञा का पालन हुआ और निजी किंकर तदर्थं प्रयत्नशील हुए । • बलिदान के दिन ही राजा के नन्दनवन में सुदत्त मुनि का ससंघ पदार्पण हुआ पर सम्प्रति उस स्थल को शृङ्गार-प्रधान होने से संयम में बाधक जान वे श्मशान में ठहरे। इसी संघ का एक क्षुल्लकयुगल मुनिश्री से आज्ञा ले भिक्षार्थ नगर की ओर आ रहा था । यह नरमिथुन बलि के लिए सर्वोत्कृष्ट है - ऐसा सोचकर राज-सेवकों ने उसे पकड़ लिया । संकटापन्न इस स्थिति में क्षुल्लकयुगल अर्थात् अभयरुचि और उनकी ही बहिन ने विचार किया कि शरीर के छेदन - भेदन से मरण दिवस आ जाने पर भयभीत न होकर शील की रक्षा करते हुए विचारों में समताभाव धारण करना चाहिए, इससे मुनि प्रसिद्ध होता है और इन्द्रादि देव या अष्टगुणधारी सिद्ध हो जाता है ।
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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