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________________ रणेमिसुर की जयमाल -मुनि कनककोति एवं पाण्डे की जयमाल -कवि नहु [संस्थान की घोषित नीति के अनुसार इस अंक में भी अपभ्रंश भाषा की उपर्युक्त दो रचनाएं सानुवाद प्रकाशित की जा रही हैं। प्रथम रचना में बाईसवें तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ की उनके गुणों एवं पौराणिक घटनाओं का वर्णन करते हुए स्तुति की गई है। इस रचना के रचनाकार घत्ता के 'करणय सुहेव कित्तियए' इन शब्दों के आधार पर मुनि कनककीर्ति ज्ञात होते हैं । द्वितीय रचना में 'पण्डित' में किन-किन गुणों का होना आवश्यक है' यह बताया गया है। इसको निबद्ध करनेवाले हैं 'कवि नण्हु' । उनका कहना है कि उन्होंने पण्डित के आवश्यक गुणों का वर्णन अपनी मर्जी से नहीं अपितु, जैसा गुणधरदेव के द्वारा कहा गया अथवा परम्परा से जैसा चला पाया है वैसा ही किया है। - रचनाओं से रचनाकारों के नाम के अतिरिक्त उनका अन्य कोई परिचय या विवरण प्राप्त नहीं होता । ये रचनाएं कहीं प्रकाशित हुई हों ऐसा हमारी दृष्टि में तो नहीं आया फिर भी हम ऐसा दावा नहीं करते । दोनों ही रचनाओं के अनुवादक हैं संस्थान में पाण्डुलिपि सर्वेक्षक एवं इस पत्रिका के सह-सम्पादक प्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक पं० मंवरलाल पोल्याका, जैनदर्शनाचार्य, साहित्यशास्त्री। आशा है पूर्व की भाँति ही हमारा यह प्रयास भी पाठकों को रुचिकर होगा। -प्रधान सम्पादक]
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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