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________________ 6.: चर्चरी, उपदेशरसायन रास एवं कालस्वरूपकुलक के रचनाकार अजमेर निवासी युगप्रधान . अचार्यश्री जिनदत्तसूरि । (12वीं-13वीं श. विः) । 7. कथाकोश और रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता सिरिबालपुर (श्रीमालपुर) के निवासी श्रीचन्द्र (11-12वीं श. वि.) 8. हरिवंशपुराण और पाण्डवपुराण आदि कई ग्रंथों के रचयिता भ. यशःकीति । ये साध होने से स्थान-स्थान पर विहार करते रहते थे। उक्त दोनों ग्रंथों की रचना इन्होंने नागौर और उदयपुर में की थी। (15वीं श. वि.)। श्री देवेन्द्रकुमार शास्त्री इन्दौर ने अपने 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य' नामक ग्रंथ में 10वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक के काल को हिन्दी का 'आदिकाल' अस्वीकार करते हुए उसे अपभ्रंश का अन्तिमकाल माना है । प्रसिद्ध हिन्दी इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन ने अपनी 'हिन्दी काव्यधारा' नामक पुस्तक में इस काल को 'सिद्धसामन्तकाल' की संज्ञा से अभिहित किया है । उनके इस मत की आलोचना श्री शास्त्री ने कई आधारों पर की है। प्रो. कोछड़ ने अपने 'अपभ्रश साहित्य' में लिखा है-'लगभग ईस्वी सन् 800 से लेकर 1300 या 1400 तक अपभ्रंश साहित्य का विशेष प्रचार रहा था । यद्यपि भगवतीदास का मृगांकलेखाचरित्र या चन्द्रलेखा वि. सं 1700 में लिखा गया। इस प्रकार प्राकृत और अपभ्रंश में रचना कुछ काल तक समानान्तर चलती रही, जिस प्रकार कुछ दिनों तक हिन्दी प्रथवा आधुनिक देशभाषाओं के साथ अपभ्रंश चलती रही (पृ. 17)।' ये भगवतीदास प्रसिद्ध हिन्दी जैन विद्वान् भैया भगवतीदास से भिन्न थे । ये दिल्ली के भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य होने के कारण पाण्डे या पण्डित कहलाते थे। ऊपर चर्चित पाण्डे भगवतीदास का यह ग्रन्थ संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग श्रीमहावीरजी में सुरक्षित है। . प्रो. कोछड़ के इस मत से सहमत होते हुए भी हम इसमें यह संशोधन करना चाहते हैं कि अपभ्रश भाषा में ग्रंथों की रचना सम्बत् 1700 वि. के पश्चात् भी होती रही है। श्रीचन्द का चन्द्रप्रभचरित जो सं. 1793 की रचना है, इस सम्बन्ध में उल्लेख्य है जिसका जिक्र डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री नीमच ने अपने 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोष प्रवृत्तियां' नामक शोध प्रबन्ध में किया है। यह प्रबन्ध सन् 1971 में लिखा गया था। उसके पश्चात् इस विषय पर और भी शोध-खोज हुई है/हो रही है। संस्थान भी अपने सीमित साधनों से इस पुण्यकार्य में शक्तिभर अपना कर्तव्य निभा रहा है । लिखने की आवश्यकता नहीं, हमारे इस प्रयास का जो स्वागत हुआ है, उससे हमारा उत्साह बढ़ा है और हमको भविष्य में अपभ्रंश भाषा एवं अन्य भाषाओं में इससे भी सुन्दर एवं उपयोगीरूप में अपना प्रयास चालू रखने हेतु प्रेरित किया है । इस अङ्क के लिए जिन-जिन लेखकों ने अपने लेख भेजकर व पत्रिका के प्रधान सम्पादक एवं उनके अन्य सहयोगियों ने जो सहयोग प्रदान किया है उन सबके प्रति तो संस्थान
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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