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जैनविद्या
और मोक्ष की प्राप्ति हो, सुख मिले और भ्रान्ति भंग हो । ठीक ही है महर्षियों को न निन्दा से क्रोध उत्पन्न होता है और न ही प्रशंसा से हर्ष । तृण और स्वर्ण भी उन्हें समान हैं तथा शत्रु व मित्र एक सदृश ।
तलवर ने कहा- योद्धा के शासन में धनुष को ही धर्म कहा गया है। उसके छोरों पर जो प्रत्यंचा बंधी रहती है वही उसका गुण है तथा रण में शत्रु का विनाश करने के लिए जो बाण छोड़ा जाता हैं, वही मोक्ष है । इसके अतिरिक्त मैं अन्य किसी धर्म, गुण या मोक्ष को नहीं जानता तथा अपनी पाँचों इन्द्रियों के सुखों को ही सुख मानता हूँ। किन्तु तू तो दुर्बल दिखाई देता है, तेरे पास न चीर है, न वस्त्र और न कम्बल । तेरे आठों अंग दुर्बल और छिन्न हो रहे हैं तथा नेत्र कपाल में मिल गये हैं। शरीर पसीने से लिप्त है इसे धो क्यों नहीं डालता? तू रात-दिन में एक पल भी सोता क्यों नहीं ? अपने मुख पर नेत्रों को बन्द कर तू किस बात का ध्यान करता है और हम लोगों में भ्रान्ति उत्पन्न करता है ? इस पर मुनि ने कहा-मैं अपना ध्यान लगाकर जीव और कर्म इन दो का विभाजन कर जीव के लिए निर्वाण की अभिलाषा करता हूँ। यह (आत्मा) पुरुष हुआ, स्त्री और नपुंसक भी हुआ । शांत स्वभावी भी हुआ और यमदूत के समान प्रचण्ड भी। राजा भी व दीन याचक भी। रूपवान् और कुरूप भी । मलिन गोत्र और उच्च गोत्र भी। बलहीन और बलवान भी। नरभव पाकर आर्य भी हुआ और म्लेच्छ भी तथा दरिद्री और धनवान भी। विद्वान् होकर फिर चाण्डाल भी हुआ । क्रूर मांसाहारी हुआ और वन में तृणचारी मृग भी। तत्पश्चात् रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्पन्न होकर बड़े-बड़े आघात सहे। नरकवासी होकर फिर जलचर, थलचर व नभचर तिर्यंच हुआ । इन भवों में अनेकों पाप किये फिर भी कुत्सित देवों के भव में जा पड़ा, जहाँ रत्नत्रय का अभाव रहा । इस प्रकार अन्य-अन्य देह धारण करते हुए और छोड़ते हुए हाय बाप ! दुःख सहते हुए बहुत काल व्यतीत हुआ। मैं दुःख को पाप का फल मानता हूँ और इसीलिए इन्द्रिय सुखों की निन्दा करता हूं । मैं तो भिक्षा मांगता हूं, तपस्या करता हूं, थोड़ासा खाता हूं और निर्जन स्थान में निवास करता हूं । धर्म का उपदेश देता हूं या मौन रहता हूँ। मैं मोह की इच्छा नहीं करता और निद्रा में भी नहीं जाता। मैं क्रोध नहीं करता तथा कपट को खरोंच फेंकता हूं। मान को खेंच फेंकता हूं और लोभ का त्याग करता हूं। देह के दुःख में उद्वेग होता है पर मैं कहीं भी काम का उन्माद नहीं करता। न तो मैं भय से आतुर होता हूं और न ही शोक से भीजता हूँ । न मैं हिंसा का कर्म करता हूं और न ही दम्भ । मैं स्त्री को देखने में अन्धा, गीत सुनने में बहरा, कुतीर्थपंथ गमन में लंगड़ा तथा अधार्मिक कथा कहने में मूक हूं।"5
उपर्युक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि परपीड़नप्रधान विपरीत अभिनिवेशों से ग्रस्त उद्दण्ड विचारोंवाला तलवर तथा समतासमन्वय की स्वाश्रित सुगन्ध में मस्त लोकोपकार के सहज मसीहा पूज्यपाद मुनिराज दोनों के ही विचार और जीवन परस्पर विपरीत होने से सातिशय विषमता रखते हैं। यही विषमता उन्हें क्रमशः बहिरात्मा और अन्तरात्मा सिद्ध करती है।