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________________ जैनविद्या 15 पिहिताश्रव ने पृथ्वीदेवी को उपदेश देते हुए धन, यौवन, जीवन, स्नेह आदि की क्षणिकता और असारता सूचित की (2.4) । पृथ्वीदेवी ने प्रेमपूर्वक चाटुकारी करनेवाले अपने पति को जिनेन्द्र-वचनों की महत्ता तथा सम्यक्दर्शन की दुर्लभता बताते हुए कहा कि लाखों योनियों में भ्रमण करते हुए लाखों दुःखों को सहकर किसी को दुर्लभ मनुष्य-जन्म प्राप्त हो और उसमें वह तप न करे, विषयों से विरक्ति अनुभव न करे और अरिहन्त देव का पूजन न करे, तो समझिए, वह अपने आपको धोखा देता है (2.6) । पृथ्वीदेवी पर देवों ने उसके धर्माचरण के फलस्वरूप कृपा करके उसे कूप-जल से बचाया और उसके पुत्र को लौटा दिया, इस पृष्ठभूमि पर कवि ने कहा-संयम, तपश्चरण और व्रतोद्यापन ही मंगलधर्म है, जिसके मन में जैनधर्म है, उसे देव भी प्रतिदिन नमस्कार करते हैं (2.13)। नागदेव ने अपने मुंहबोले पुत्र नागकुमार को समस्त विद्याओं, कलाओं और शास्त्रों की शिक्षा प्रदान की। उसमें उसने राजनीति की शिक्षा में नीति धर्म, कर्म शुद्धि, मनोनिग्रह तथा अनुग्रह पर बल दिया है (3.2-3)। मथुरा के जयवर्म नामक राजा को एक मुनिवर ने गृह-धर्म का उपदेश देते हुए कहा कि दान किसे दिया जाय, अर्थात् दान देने योग्य कौन होते हैं ? उन्होंने पति-धर्म का भी विवेचन किया । उसमें प्रमुख तत्त्व ये हैं--दया, विनय, सत्यपालन, मधुरवाणी, पर-धन और पर-स्त्री से विमुखता, व्रतों का पालन, सूर्यास्तपूर्व भोजन, जिनेन्द्र प्रतिमा का ध्यान, पों में प्रोषध व्रतों का निर्वाह, अन्त में संन्यास धर्म को ग्रहण करना । सुव्रत केवली ने जितशत्रु को धर्मोपदेश देते हुए मृत्यु की अनिवार्यता, राज्य, धन और वैभव की क्षणिकता, पाप-तरु के दुःखरूपी फल आदि का विवेचन किया और कहा कि पाप को धर्म द्वारा खपाया जा सकता है । जितशत्रु को विद्याओं ने बताया कि जिनशासन में आपकी रुचि हो गई है इसलिए आपको हम से कोई काम नहीं रहा । इससे सूचित होता है कि जिन-शासन में अनुरक्ति अनेकानेक भौतिक लाभ दिलाने-- वाली विद्याओं से अधिक श्रेयस्कर है (6.4-5)। श्रुतिधर मुनि ने भी नागकुमार को जो उपदेश दिया, उसमें जीव-दया, सत्य, पर-धन तथा पर-स्त्री से विरक्ति आदि पर बल दिया गया है (6.10) । कवि ने कहा है कि धन, यौवन, हृदय-प्राणों की चरितार्थता किसमें है-- . परिणहि बच्चउ पिहलुसरणे, जुन्वणु जाइ जाउ तवयरणे ॥ हियबउ गुप्पउ जिरणसम्भरणे, पाण जन्तु मुरिणपण्डियमरणें ॥ .... जोयउ पवि असहाय-सहेज्जउ ।............. (7.15.6) : अर्थात् धन-निधि दीनों के उद्धरण में व्यय हो, यौवन तपश्चरण में व्यतीत हो, हृदय जिनेन्द्र-स्मरण में मग्न हो, प्राण जाएं मुनि के पण्डित-मरण में और जीएं तो असहाय की सहायता करते हुए । इसमें जिनेन्द्र-स्मरण और मुनि-मरण की महत्ता ध्यान देने योग्य है। (11) श्रुत-पंचमी व्रत तथा माहारादि दान की विधि नागकुमार ने मुनिवर से यह जानना चाहा कि वह अपनी स्त्री लक्ष्मीमती के प्रेम में अंधा क्यों हो रहा है (लच्छीमइयए हउँ पेम्मन्धउ)। इस रहस्य को प्रकट करते हुए मुनिवर ने नागकुमार के पूर्वभव की कथा कही। उसके अनुसार नागकुमार अपने पूर्वभव में नागदत्त
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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