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________________ 16 जैन विद्या नामक वणिकपुत्र था, वसुमती उसकी स्त्री थी। मनदत्त नामक मुनिवर से धर्मोपदेश सुनकर नागदत्त ने फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी (श्रुतपंचमी) के उपवास का व्रत ग्रहण किया । प्यास से व्याकुल अपने पुत्र को पिता ने धोखा देकर जल-ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना चाहा परन्तु नागदत्त ने उसे जानकर जिनेन्द्र का स्मरण और पंचपरमेष्ठी का चिन्तन करते हुए मृत्यु को गले लगाया। इस पुण्यकर्म के फलस्वरूप वह सौधर्म स्वर्ग में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। अनन्तर उसकी स्त्री वसुमती भी संन्यास धर्म को स्वीकार करके मर गयी और तदनन्तर स्वर्ग में नागदत्त से मिली। वही दम्पति, नागदत्त-वसुमती, इस भव में नागकुमार-लक्ष्मीमती के रूप में उत्पन्न हुए हैं। अपने पूर्व भव की कथा सुनकर नागकुमार ने मुनिवर से श्रुतपंचमी व्रत के विषय में जिज्ञासा प्रकट की। उसका समाधान करते हुए उन्होंने निम्नलिखित बातों पर प्रकाश डाला जिनधर्म के अनुसार उपवास के प्रकार, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन की शुक्ल चतुर्थी के उपवास की विधि, आहार-दान, व्रत का उद्यापन, दान-विधि इत्यादि । उपरोक्त तीन मासों में से किसी एक को शुक्ल पंचमी के दिन ऐसी ही विधि से पांच वर्ष तक उपवास करें। नागकुमार को राज्यश्री, सुख-सम्पत्ति आदि का परम लाभ हुआ। वैभव के अत्युच्च शिखर पर विराजमान होने पर उसे सांसारिक सुखोपभोग के प्रति विरक्ति हुई और उसने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। नियमानुसार कठोर तपस्या करके अन्त में उसने मोक्ष प्राप्त किया । यह सद्भाग्य उसे श्रुत-पंचमी के उपवास के फल-स्वरूप प्राप्त हुआ। (12) दीक्षा और तपाचरण ....... णायकुमारचरिउ में कहा है कि जयन्धर, श्रीधर, नागकुमार आदि अनेक व्यक्तियों ने सांसारिक सुखोपभोग का त्याग करके दीक्षा ग्रहण की और उग्र तपस्या की। जिन-शासन में गृहस्थाश्रम का निषेध नहीं है फिर भी यथाकाल दीक्षा ग्रहण करके कर्मकल्मष का क्षय । करते हुए पुण्यलाभ करने की आवश्यकता का भी प्रतिपादन किया गया है । पुष्पदंत कृत णायकुमारचरिउ प्रथम श्रेणी का चरितकाव्य है। उसका नायक नागकुमार सौन्दर्य, सद्-शील और वीरता का मानो मूर्तरूप है। उसकी इस महत्ता का रहस्य उसके द्वारा रखे हुए श्रुतपंचमी के व्रत में है। कवि ने उसकी कथा के माध्यम से उस व्रत की महिमा का गान किया है । णायकुमारचरिउ की रचना की प्रेरणा प्रधानतः धार्मिक है । कवि ने किस प्रकार जिन-शासन के दृष्टिकोण को इस काव्य द्वारा अभिव्यक्ति प्रदान की है, यह उपर्युक्त विवरण से आसानी से समझ में आएगा अतः इसमें कोई मतभेद नहीं होगा कि णायकुमारचरिउ आदि से लेकर अन्त तक एक 'जैन-काव्य' है । इस लेख का उद्देश्य सीमित है। णायकुमारचरिउ की काव्यगत विशेषताओं को प्रस्तुत करना इसमें अपेक्षित नहीं है। फिर भी, मैं इतना ही कहना उचित मानूंगा कि कथावस्तु का मनोहर स्वरूप, नायक का उज्ज्वल चरित्र, वीर, रौद्र तथा शान्त रस, अलंकारप्रचुरता, विविध छन्दों की रचना, भाषा-साहित्य, चरितकाव्य के अनेकानेक लक्षणों का निर्वाह, नगर, व्यक्ति आदि का चित्रात्मक वर्णन तथा उद्देश्य का गाम्भीर्य आदि की दृष्टि से काव्य-रसिक-जन गायकुमारचरिउ का अनुशीलन करके तुष्टि को ही प्राप्त होंगे।
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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