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प्रकाशकीय
पर्याप्त प्राचीन समय से जैनधर्मानुयायियों में एक परिपाटी चली आ रही है। प्रायः प्रत्येक जैन शौचादि नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निवृत्त हो शुद्ध वस्त्र पहन सर्वप्रथम जिनमंदिर में अवश्य जाता है। वहां वह भगवान्, जिनेन्द्र की भक्तिभावपूर्वक वन्दना, स्तुति, पूजा, अर्चना अादि कर कुछ काल जप, ध्यान आदि करता है। इसके पश्चात् यदि वहां कोई साधु आदि उपस्थित हों तो उनके समीप बैठ तत्त्व चर्चा करता है अथवा उनका धर्मोपदेश सुनता है । तदनन्तर जिनवाणी शास्त्र का स्वाध्याय करता/कराता है । यद्यपि काल के प्रभाव से वर्तमान पीढ़ी में यह प्रथा प्रायः समाप्ति की ओर अग्रसर है किन्तु पुरानी पीढ़ी के लोग अभी भी इस परिपाटी का पालन करते हैं । यह उनकी दिनचर्या का एक आवश्यक अंग है। धर्मशास्त्रानुसार भी जैन गृहस्थ की छह आवश्यक क्रियानों में इनका प्रारम्भिक तीन आवश्यकों के रूप में विधान है । जैनों में प्रचलित इस परम्परा ने जैनधर्म और संस्कृति की रक्षा, उसके प्रचार तथा प्रसार में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में जो इतने कलापूर्ण मंदिर एवं शास्त्रों के विपुल भण्डार प्राप्त हैं वे सब इसी के फल/परिणाम हैं। इस प्रकार की परम्परा जैनों के अतिरिक्त अन्य किसी सम्प्रदाय में नहीं है । वहां मात्र देवदर्शन अथवा साधु-सेवा ही प्रावश्यक अंग के रूप में विद्यमान है अतः वहां मंदिरों का निर्माण तो हुप्रा किन्तु उसमें, कुछ अपवादों को छोड़कर, शास्त्र-भण्डारों का प्रायः अभाव रहा।
यदि किसी को अपनी बात, अपनी मान्यताओं से प्रभावित करना हो तो उसको उसी की भाषा में अपनी बात कहनी चाहिये, यह एक निर्विवाद सत्य है। अन्य भाषा में उससे बात करने पर यथेच्छ प्रभाव पड़ ही नहीं सकता। जैन तीर्थंकरों ने इस तथ्य को समझा था, इसलिए अपने उपदेशों के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रचलित लोकभाषामों को चुना था। युगादिदेव भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों ने इस सिद्धान्त का पालन किया तथा उनके पश्चात् होनेवाले गणधरों, प्राचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं, भट्टारकों, पण्डितों और विद्वानों ने इस परम्परा को चालू रखा। यही कारण है कि जैसे ही प्राकृत भाषा का स्थान अपभ्रंश भाषा ने ग्रहण किया उन्होंने इस भाषा को अपनी रचनायों का माध्यम बनाना प्रारम्भ कर दिया । उनकी देखा-देखी नाथ सम्प्रदाय के साधुओं ने भी ऐसा करना प्रारम्भ किया। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों ने इसे और बढ़ावा दिया। वह काल भारत पर विदेशियों के आक्रमण का काल था और लोग उनसे त्रस्त होकर इधर से उधर शांति की खोज में भागते फिरते थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हें उच्च अध्ययन का अवसर ही प्राप्त नहीं होता था, अतः वे अपनी भाषा में धर्मतत्त्व का श्रवण, मनन और