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________________ 60 जैन विद्या -जहाँ यौवन के मद और सम्पत्ति के मद की प्रचुरता होती है वहाँ ही घना अंधकार फैलता है। क्या बुधजनरूपी सूर्य की किरणों के प्रकाश के बिना विचरण करते हुए मनुष्य को सुखपूर्ण मार्ग का सार दिखाई दे सकता है ? महर्षि कवि की दृष्टि में सच्चा महर्षि होता है गउ रिणदइ मच्छरु विच्छरइ, रण पसंसइ वड्ढइ हरिसु । समतरण कंचरणहं महारिसिहि, सत्तु विमिततु समसरिसु॥ 3.8.13-14 -महर्षियों को न तो अपनी निंदा से मात्सर्य उत्पन्न होता है और न प्रशंसा से हर्ष। उनके लिए तो तृण और कंचन, शत्रु एवं मित्र एक समान होते हैं। शरीर माणुससरीरु दुहपोट्टलउ, धोयउ धोयउ अइविट्टलउ । वासिउ वासिउ णउ सुरहि मलु, पोसिउ पोसिउ रणउ धरई बलु ॥ तोसिउ तोसिउ रणउ अप्पणउ, मोसिउ मोसिउ धरभायणउ । भूसिउ भूसिउ ण सुहावरणउ, मंडिउ मंडिउ भीसावरणउ ॥ वोल्लिउ वोल्लिउ दुक्खावरणउ, चच्चिउ चच्चिउ चिलिसावरणउ । मंतिउ मंतिउ मरणहो तसइ, दिक्खिउ दिक्खिउ साहुहुँ भसइ ॥ सिक्खिउ सिक्खिउ वि रण गुणि रमइ, दुक्खिउ दुक्खिउ वि ण उवसमइ। वारिउ वारिउ वि पाउ करइ, पेरिउ पेरिउ वि ण धम्मि चरइ ॥ अब्भंगिउ अन्भंगिउ फरिसु, रुक्खिउ रुक्खिउ प्रामइसरिसु । मलियउ मलियउ वाएं घुलइ, सिंचिउ सिंचिउ पित्ति जलइ ॥ सो सिउ सोसिउ सिभि गलइ, पत्थिउ पत्थिउ कुठ्ठहें मिलइ । चम्में बधु वि कालिं सडइ, रक्खिउ रक्खिउ जममुहि पडइ ॥ 2.11 कितने ही प्रयत्न करने के पश्चात् भी शरीर वैसा नहीं बन पाता जैसा हम उसे बनाना चाहते हैं और रक्षा करते करते भी वह किस प्रकार मौत के मुंह में चला जाता है इसका कितना सुन्दर और सटीक वर्णन कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में किया है, जरा देखिये -मानव शरीर दुःखों की पोट है, उसे बार-बार धोने पर भी वह अत्यन्त अपवित्र ही रहता है, उस पर कितने ही सुगंधित द्रव्यों का मर्दन करो फिर भी वह दुगंधित ही बना रहता है, पोषण करते करते भी वह पुष्ट नहीं होता, उसे जितना चाहे संतुष्ट करो फिर भी वह अपना नहीं होता, बार बार चुरा लिये जाने पर भी घर में ही बना रहता है अर्थात् मृत्यु द्वारा बार बार छीन लिये जाने पर भी शरीर में ही बना रहता है, आभूषणों से भूषित
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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