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________________ जैन विद्या कयसहि कण्णसुहावरहि, कणइ व सुरहरपारावरहि । सरहँसई जहिं णेउरवेण, मउ चिक्कमति जुबईपहेण । णं वेढिउ वहुसोहग्गभार, गं पुजीकयसंसारसार । सिरिमंतई संतई सुस्थियाई जहिं कहिमि ण बीसहि दुत्थियाई। —वह सरस उपवनों से आच्छादित था मानो कामदेव के वाणों से विद्ध था। दवालयों के पारावतों की कर्णमनोहर ध्वनियां ऐसी लगती थीं मानो नगर गा रहा हो। सौभाग्य की सारी सामग्री से भरपूर वह नगर संसार की सार वस्तुओं से भरा हो। वहाँ के मनुष्य श्रीमंत, शांत और स्वच्छ थे। कहीं भी दुःखी मनुष्य दिखाई नहीं देते थे। इसी प्रकार अवन्ति देश तथा उज्जयिनी का वर्णन भी बहुत काव्यपूर्ण तथा मनोहर हुआ है। स्वाभाविकरूप से उनकी उपमाएँ वियोगशृंगार और संयोगशृंगार से युक्त हैं । कवि का कथन है कि वहां का राजमार्ग लोगों के मुख से गिरे हुए तांबूलरस से लाल तथा गिरे हुए प्राभूषणों की मणियों से विचित्र दिखाई देता था। वहां चंवरियां कर्पूर की धूलि से धूसरित थीं तथा कस्तूरी की सुगन्ध से आकर्षित होकर भ्रमर उन पर मंडराते थे । एक बड़ी सुन्दर बात कवि ने कही है जहि गंवइ जणु जगजरिणयसोक्खु, णिच्चोरमारि णिल्लुत्तदुक्खु । 1.22.8 अर्थात्-वहां लोग परस्पर सुख बढ़ाते हुए आनंद से रहते थे। वहां चोर तथा महामारी का भय नहीं था तथा दुःख का प्रभाव ही था। नंदन वन तथा श्मशान वन कवि ने सुदत्त मुनि के राजपुर आगमन के अवसर पर नंदन वन तथा श्मशान वन का वर्णन एक साथ कर दिया है । वे कहते हैं कि नंदन वन में प्रामों की पुष्पमंजरी शुकों के चुम्बन से जर्जरित होती थी। कोमल और ललित मालती मुकुलित कलियों सहित फूल रही थी और भौंरे उस पर बैठ रहे थे । दर्शन तथा स्पर्श में रसयुक्त और मृदु बहुतों का मन क्यों न आकर्षित करें ? हंस नवांकुर खंड हंसिनी को दे रहा था और वह अपनी चोंच से हंस की चोंच को चूम रही थी। नूपुरों की मधुर ध्वनि को सुनकर संकेत-स्थल पर खड़ा प्रेमी यह कहता हुआ नाच रहा था कि मैं ही उस प्रागंतुकप्रेयसी का प्रिय हूँ। यह कवि के मधुर शब्दों में प्रस्तुत है जत्थ य चूयकुसुममंजरिया, सुयचंचू चुंबरणजन्जरिया। छप्पय छित्ता कोमलललिया, वियसइ मालइ मउलिय कलिया। बंसरणफंसरण हिं रसयारी, मयउ क्कोण बहूमरणहारी। जस्थ सरे पोसियकारंडं, सरसं गवभिस किसलय खंड। दिग्णं हंसेणं हंसीए, चंचू चंचू चुंबताए। संकेयत्यो । जत्य सुहवं, सोऊणं मंजीरयसव्वं । ... महमेंतीए तीए सामी, एवं भरिणत गच्या कामी। 1.12
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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