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________________ जैन विद्या आचार्य - " तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैं ग्रंथ - प्रमाण सहित देना श्रेष्ठ समझता हूँ । कवि की विशेष कीर्ति या ख्याति न होती तो वे अपने लिए ऊँचे विशेषण न लगाते । देखो ये विशेषण - 38 अभिमानमेरु 1.1.4 अभिमान-चिह्न 4.31.6 कविकुल-तिलक 1.8.17 सरस्वति-निलय 1.8.16 महाकवि 38.2.2 सकल-कलाधर 38.2.8 सरस्वति - विलास 102.14.4 गुण-गरण-निधान 1.6.5 99 इतने प्रचुर और उच्च विशेषरणों से सिद्ध होता है कि उस समय के विद्वज्जन उन्हें कवि के लिए प्रयुक्त करते थे । कवि के जीवनकाल में ही कवि की विशेष ख्याति फैल चुकी थी । सहचरि 1. 13 ' 2. 3. " 13 महापुराण " अब मैं काव्य-कलापक्ष के विषय में दो शब्द कहना आवश्यक समझता हूँ रस- इस जसहरचरिउ ( यशोधर चरित) में वैसे तो सभी रसों के छींटे पड़े हैं पर प्रधानतः वैराग्य रस (शांत रस) और वीभत्स रस का प्रभाव ज्यादा है। बुढ़ापे की दुर्दशा (1.28) और मनुष्य शरीर की प्रकृति (2.11 ) विशेष पठितव्य हैं । 99 लंकार — कवि ने अलंकारों का अपने काव्य में यथोचित उपयोग किया है । शब्दालंकारों में उपमा, यमक और श्लेष का सुन्दर उपयोग हुआ है । अर्थालंकारों में उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक और संदेह अलंकारों ने अपना सुस्थान बना लिया है । छंद -- अधिकांश रचना पज्झटिका और अलिल्लाह छंदों में हुई है। वैसे तो मात्रिक छंदों में दुवई और घत्ता का खूब प्रयोग हुआ है । वरिंगक छंदों में सोमराजी, समानिका और भुजंगप्रयात का उपयोग कवि ने जहां-तहां किया है। रचना में अनेकों प्रकार के छंद व्यवहृत हैं । इस प्रकार, हे प्रिय शिष्यो, मैंने जसहरचरिउ या यशोधर श्राख्यान के सम्बन्ध में कुछ बताया है । वास्तविक श्रानन्द तो मूल कविता के पठन से ही प्राप्त होगा । महाकवि पुष्पदंत, चिन्मय प्रकाशन, पृष्ठ 101 महाकवि पुष्पदंत, चिन्मय प्रकाशन, पृष्ठ 98 जसहरचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रस्तावना पृष्ठ 51
SR No.524753
Book TitleJain Vidya 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages120
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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