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जनविद्या
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पण्डित वह है जो क्षमाशील और दमनशील होता है, विषयों और विषयसुखों से भी विरक्त होता है। पण्डित वह है जो संसार के दुःखों से भयभीत रहता है, पण्डित वह है जो मोक्ष की चाहना करता है ।।6।।
नण्हु कवि हाथ जोड़कर कहता है कि उसने पण्डित के इन गुणों का वर्णन वैसा ही किया है जैसा कि गुणों के स्वामी (भगवान् जिनेन्द्र) ने कहा है और जैसा परम्परा से प्रसिद्ध है ॥7॥
टिप्पण-मूल पाठ एक ही प्रति के आधार पर जैसा का तसा प्रस्तुत किया गया है। मेरी दृष्टि में इसमें प्रथम कडवक की द्वितीय पंक्ति में 'सांतेंकरणें' के स्थान में 'संतिकरणे' और अन्तिम कडवक की द्वितीय पंक्ति में 'जि' के स्थान में 'जिम' होना चाहिये । लिपिकार ने लिपि करते समय इनके पढ़ने में भूल की हो ऐसा असंभव नहीं है।