Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 73
________________ जैन विद्या शील-महिमा मा बीहसु करणे अज्ज पवणे मरणदिणे। हिययं अविवंकं गयखयसंकं ठवसु जिणे ॥ छिदउ तणुचम्मं भिंदउ वम्मं रसवसउ । भक्खउ जंगलयं चंपउ गलयं रक्खसउ ॥ घुट्टउ कोलालं खंडउ सोलं जइ रण मुरगी। ता होइ पसिद्धो देवो सिद्धो अट्ठगुणी ॥ भावार्थ-हे कन्ये ! आज अपना मृत्युदिवस आ जाने पर भी भयभीत मत होनो और अपने निर्विकार एवं मृत्यु की शंका से रहित हृदय को जिनेन्द्र के स्मरण में लगायो । शरीर का चर्म छिद जाय, शरीर का रस, वसा आदि भिद जावें और राक्षस उसका मांस खा डालें तो भी यदि मुनि अपना शील खण्डित न करे तो वह मुनि प्रसिद्ध होता है, देवयोनि प्राप्त करता है एवं अष्टगुणधारी सिद्ध भी हो जाता है। जस० 115.5-10 -- -

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