Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 72
________________ जैन विद्या - इस दारुण संसार में दो दिन रहकर कौन नरवर यहां से नहीं गया ? धन इन्द्रधनुष के समान नष्ट हो जाता है । विद्वानों का उपहास करनेवाली लक्ष्मी जलधर के समान अस्थिर है। शरीर, लावण्य और वर्ण सब क्षरण में क्षीण हो जाते हैं । पुष्पदंत को अपभ्रंश भाषा का व्यास कहा जाता है । 11 अकेला महापुराण उनकी काव्यकीर्ति को अमरता प्रदान करता है । इनकी रचनाओं में जो प्रोज, प्रवाह, रस और सौन्दर्य है वह अन्यत्र दुर्लभ है । उनकी सरस और सालंकार रचनाएँ परवर्ती संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी कवियों का निदर्शन करती हैं। अनेक परवर्ती कवियों ने उनका सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है । पुष्पदंत की प्रतिभा का प्रतिमान इसी से प्रमाणित होता है। कि इनको अपने महापुराण में एक ही विषय स्वप्न-दर्शन को 24 बार अंकित करना पड़ा परन्तु सर्वत्र नवीन छन्दों एवं नवीन पदावलियों की योजना मिलती है जो उनका Story है । साहित्य दर्पण - प्राचार्य विश्वनाथ कविरत्न अपभ्रंश साहित्य - प्रो. हरिवंश कोछड़ महापुराण - 52.13.4-5 1. 2. 3. 4. गायकुमारचरिउ -7.5.15-16 5. महापुराण 28.12 7-8 6. महापुराण 73.3-8 7. महापुराण 78.21 - घत्ता 8. महापुराण 78.22.12 9. यत्र न सुखं न दुःखं न द्वेषो नापि मत्सरः । समः सर्वभूतेषु स शान्तः प्रथितो रसः ॥ - भरतमुनि 67 10. महापुराण 7.1 11. अपभ्रंश साहित्य - प्रो. कोछड़ --(a)

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