Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 77
________________ जैन विद्या का भी त्याग करना आवश्यक बताया है । लगता है, महाकवि के समय रात्रि में मिष्ठान्न खाने की प्रथा अधिक बलवती हो गयी थी । 72 इसके अतिरिक्त महाकवि ने कुछ और भी महत्त्वपूर्ण विचारदृष्टि प्रस्तुत की है । उदाहरणार्थ - बालकों में गुणों की प्रेरणा हो और उन्हें दोषों से दूर रखा जाय, विनय की शिक्षा दी जाय 110 नारी निन्दा के संदर्भ में उन्होंने परम्परागत स्वर में ही अपने स्वर मिलाये हैं पर यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने प्रकुलीन स्त्रीरत्न को स्वीकार करने की भी वकालत की है और कहा है कि शुद्धचित्त वेश्या भी कुल-पुत्री हो सकती है । 11 इससे यह प्रतीत होता है कि महाकवि यद्यपि नारी को प्राध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में बाधक तत्त्व के रूप में स्वीकार करते थे पर उसकी सामाजिक दशा को सुधारने की ओर भी उनकी पैनी दृष्टि लगी हुई थी । दीक्षा देने का भी विरोध समझाते हैं कि तुम अभी इसके विपरीत तपस्या एकाधिक स्थान पर पुष्पदंत ने बालक-बालिकाओंों को किया है । 12 अभरुचि दीक्षा लेना चाहते हैं पर मुनिराज उन्हें अत्यन्त दुबले-पतले बालक हो और कमलपत्र के समान कोमल हो। करने का विधि-विधान बहुत कठिन होता है । इसलिए बालक-बालिकाओं के लिए यह ग्रहण करने योग्य नहीं है । तुम तो उत्तम श्रावक बनकर गुरु की सेवा करते हुए ग्रागमपदों का शिक्षण प्राप्त करो । परिपक्वता के बिना साधु के व्रत भार भी बन सकते हैं, वह पथभ्रष्ट भी हो सकता है | महाकवि का मन्तव्य यह भी प्रतीत होता है कि एक तो साधु-अवस्था क्रमिक वृत्ति का परिणाम होना चाहिये और दूसरी बात यह कि व्यक्ति यदि उसे गृहस्थावस्था के बाद अंगीकार करता है तो उसमें परिपक्वता और स्थिरता अधिक रहेगी । उपमानसृष्टि कवि की प्रतिभा और काव्य के सौन्दर्य को उपमान के निकष से परखा जाता रहा है क्योंकि उपमानों के संयोजन में उसकी पैनी दृष्टि निहित रहती है। जिसके साथ उपमेय की समता स्थापित की जाय उसे उपमान कहा जाता है । इसलिए उपमेय को अल्पगुणशाली तथा उपमान को उत्कृष्ट गुणशाली माना जाता है । उपमान के लिए अप्रस्तुत, प्रकृत, वर्ण्य विषयी, प्राकरणिक, अप्रासंगिक जैसे शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । साम्य-स्थापनरूप साधारण धर्म जब उपमान- उपमेय में रहता है तभी उनमें तुलना की जाती है । वे साधारण धर्म विशेषतः अनुगामी वस्तु प्रतिवस्तु तथा बिबप्रतिबिंब भाव में प्रतिफलित होते हैं । उपमेय-उपमान में जब धर्म एक रूप में स्थित होता है तो उसे अनुगामी धर्म कहते हैं । जब भिन्न-भिन्न वाक्यों में विभिन्न शब्दों द्वारा व्यक्त हो तो उसे वस्तु प्रतिवस्तु-भाव कहते हैं और जब साधारण धर्म के भिन्न-भिन्न होने पर भी पारस्परिक सादृश्य के कारण उनमें भिन्नता स्थापित की जाती है तो उसे बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव कहा जाता है इस दृष्टि से उपमान का क्षेत्र काफी व्यापक हो जाता है । उपमान के इस क्षेत्र की व्यापकता को हमने कुछ और बड़े कॅनवास में ले लिया है । महाकवि के ग्रंथों को देखने से उनकी उपमानसृष्टि की गहराई का पता चलता है ।

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