Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 85
________________ 80 जैनविद्या शृंगार, वात्सल्य, करुणा, शान्त, अद्भुत, वीर, भयानक आदि रसों का काव्य में अच्छा परिपाक दृष्टिगोचर होता है । कवि ने अपने काव्यों में कला-पक्ष के अन्तर्गत अलंकार, छन्द, उक्तिवैचित्र्य आदि का अच्छा समावेश किया है। हिमालय प्रदेश का वर्णन करते हुए कवि ने उसका अच्छा सजीव चित्र प्रस्तुत किया है, यथा गाणामहिरह फलरसहरई कत्थइ किलिगिलियइंवारणरइं । कत्थइ रइरत्तइं सारसई कत्थइ तवत्तइं तावसई । कत्थइ झरझरियइं पिज्झरइं कत्थइ जलभरियई कंदरई । कत्थइ वीणियवेल्लीहलई दिढ्इं भज्जंतइं साहलई । महापुराण-15.1.6-7 कहीं नाना फलोंयुक्त वृक्ष हैं, कहीं वानर किलकारियां भरते हुए दौड़ रहे हैं, कहीं रति में लीन सारस हैं, कहीं तपस्या में लीन तपस्वी हैं, कहीं निर्भर झर-झर झर रहे हैं, कहीं जल से भरी कन्दराएँ हैं, कहीं भोले-भोले शबर देखते ही भागते हैं । राजगृह का वर्णन करता हुमा कवि लिखता है कि वहां जो मोतियों की रंगावलियां रची गई थीं उनसे प्रतीत होता था मानो वह हार-पंक्तियों से विभूषित हो। वह अपनी उठी हुई ध्वजारों से पंचरंगा और चारों वर्गों के लोगों से अत्यन्त रमणीक हो रहा था। विरइयमोत्तियरंगावलीहिं जं भूसिउ णं हारावलीहि । चिहिँ धरिय रणं पंचवण्णु चउवण्ण जणेण अइरवण्णु । णाय. 1.7.7-8 कवि ने अलंकारों के प्रयोग में अपनी विशिष्ट अभिरुचि प्रदर्शित की है। अलंकार को सुकवि के काव्य का प्रावश्यक अंग माना गया है और निरंलकार को कुकवि की कथा कहा हैनिरलंकार कुकइ कह जेही। गाय. 3.11.12 उपमा अलंकार माता मरुदेवी के गर्भ में जब ऋषभ का जीव आता है तो कवि उसकी उपमा शरदकालीन मेघ के मध्य चमकता हुअा चन्द्र तथा कमलिनी-पत्र पर स्थित जलबिन्दु से देता है सरयम्भमण्झम्मि रइरवइंदु ध्व, सयवत्तिणीपत्तए तोयबिंदु व्व । महापुराण, 2.7.10

Loading...

Page Navigation
1 ... 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120