Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 71
________________ 66 जैद्यनावि नहीं रहता, प्रकृति भी उसके शोकावेग से प्रभावित दिखाई देती है। सीता के वियोग से राम को जल विष के समान और चन्दन अग्नि के समान दिखाई देता है । मंदोदरी के विलाप एवं अन्य स्थलों पर कवि की रसाभिव्यंजना सुन्दरता से हुई है-- मलयारिणलु पलयालु भावइ, भूसणु सणु करि बद्धउ गावइ । -वियोगिनी को मलयानिल प्रलयानिल के समान, भूषण सण के बन्धन के समान प्रतीत होता है। करुण रस युद्धोत्तर वर्णनों में युद्ध के परिणामस्वरूप करुण-रस और वीभत्स रस के. दृश्य भी सामने आ जाते हैं । करुण रस का एक चित्र मंदोदरी-विलाप में मिलता है तातहि मंदोयरि देवि किसोयरि थण अंसुयधारहिं धुवइ । शिवडिय गुणजलसरि खगपरमेसरि हा हा पिय भरणंति क्यइ ॥ -उस अवसर पर वह कृशोदरी मंदोदरी देवी अपने वक्षस्थल को अश्रुधारा से धोती है। गुणजलरूपी नदी की भांति (भूमि पर) गिरी हुई वह विद्याधर परमेश्वरी हा प्रिय, हा प्रिय कहकर रो उठती है । पई विणु जगि दसास जं जिज्जइ, तं परदुक्खसमूहु सहिज्जइ । हा पिययम भरणंतु सोयाउरु, कंदइ गिरवसेसु अंतेउरु ॥ ___ --हे दशमुख ! यदि तुम्हारे बिना जग में जिया जाता है तो यह परम दुःखसमूह को सहन करना है । हा प्रियतम ! कहता हुआ शोक से व्याकुल समूचा अन्तःपुर क्रंदन करता है। - पत्र शान्त रस जहां न दुःख रहता है न सुख, न द्वेष और न राग समस्त जीवों में समभाववाला वह शान्त रस प्रसिद्ध माना गया है । शान्त रस का रसराजत्व इसलिए सिद्ध है कि मानव जीवन की समस्त वृत्तियों का उद्गम शान्ति से ही होता है। शान्ति का अनन्त भण्डार आत्मा है। जब आत्मा देह आदि परपदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगती है तभी शान्त रस की उत्पत्ति होती है। यह वह विशुद्ध-ज्ञान और प्रात्मानंद की दशा है, जहां काव्यानंद और ब्रह्मानंद दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जैन कवियों की काव्यरचना का उद्देश्य मनुष्य मात्र में वैराग्य उत्पन्न कर चरमोत्कृष्ट सुख-शान्ति की ओर ले जाना रहा है जिनमें वे सफल हुए हैं। ___ पुष्पदंत के काव्यों में निर्वेद भावों को जागृत करनेवाले कई स्थल मिलते हैं जहाँ शान्त रस का प्रभावी परिपाक बन पड़ा है इहं संसार दारुण, बहुसरीरसंधारण । वसिऊणं दो वासरा, के के रण गया रणरवरा ॥10

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