Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 69
________________ 64 जनविद्या भाव रसत्व को प्राप्त होकर प्रास्वाद्य होता है । ये जन्मजात सर्वनिष्ठ और रस परिणामी होते हैं । भरतमुनि ने इनकी संख्या नौ मानी है । रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, जुगुप्सा, भय, विस्मय और निर्वेद । इनसे उत्पन्न होनेवाले रस भी नौ होते हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, वीभत्स, भयानक, आश्चर्य और शान्त । अंतःकरण में रजोगुण और तमोगुण को हटाकर सत्वगुण के सुन्दर, स्वच्छ प्रकाश होने से जो रस का साक्षात्कार होता है वह अखण्ड, अद्वितीय स्वयं प्रकाश-स्वरूप और आनंदमय है । काव्य में रस का वही स्थान है जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार सब अंग-प्रत्यंगों के रहते हुए भी बिना प्रात्मा के शरीर व्यर्थ है, उसी प्रकार छंद, अलंकार आदि सभी अवयवों से पूर्ण काव्य बिना रस के व्यर्थ है। इसीलिए “रसात्मकं वाक्यं काव्यम्"-- रसयुक्त वाक्य ही काव्य है । रसात्मकता की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों में हमें मुख्यरूप से शृंगार, वीर और शान्त रस का ही वर्णन मिलता है । सौन्दर्य वर्णन में शृगार, पराक्रम और युद्धवर्णन में वीर और संसार की असारता, नश्वरता आदि के प्रतिपादन में शान्त रस दृष्टिगोचर होता है। इनमें भी प्रधानता शान्त रस की ही रखी गई है। जहां वीरता के प्रदर्शन से चमत्कृत नायिका प्रात्म-समर्पण कर बैठती है वहां वीर रस शृंगार का और जहां झरोखे में बैठी सुन्दरी की कल्पना का नायक वीरता प्रदर्शन के लिए संग्राम भूमि में उतरता है वहां शृगार रस वीर रस का सहायक होकर आता है। इन दोनों का पर्यवसान शान्त रस में दिखाई देता है। जैन अपभ्रश-परम्परा में धार्मिक भावना विरहित काव्य की कल्पना नहीं की जा सकती। संसार की अनित्यता, जीवन की क्षण-भंगुरता और दुःखबहलता दिखाकर विराग उत्पन्न करना, शान्त रस में काव्य एवं जीवन का पर्यवसान ही कवि को अभीष्ट होता है। महाकवि पुष्पदंत के काव्यों में वीर, शृंगार और शान्त इन तीन रसों की अभिव्यंजना मिलती है । प्रायः सभी तीर्थंकर, चक्रवर्ती और अन्य महापुरुष अपने जीवनकाल में सुख-भोग की सामग्री की प्राप्ति के लिए अनेक बार युद्ध करते हैं, जीवन के अन्त में संसार से विरक्त हो निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं। ऐसे स्थलों में शृंगार और वीर दोनों रसों का पर्यवसान शान्त रस में होता है। कहीं-कहीं करुण, वीभत्स एवं आश्चर्य रस के दृश्य भी मिलते हैं । सब शान्त रस के पूरक बन कर पाते हैं । वीर रस महापुराण में वासुदेवों एवं प्रतिवासुदेवों के संघर्ष में वीर रस के सरस उदाहरण मिल जाते हैं। वीर रस के वर्णनों में वीर रस के परिपाक के लिए कवि ने भावानुकूल शब्दयोजना की है। भडु को वि भणइ रिउं एंतु चंडु, मई अज्जु करेवउ खंडखंडु। 52.12.4

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