Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 67
________________ 62 जैनविद्या को दिया हुआ दान, मोहांध को धर्म का व्याख्यान दुष्ट और बकवादी मनुष्य का गुणगान ये सब अरण्यरोदन के समान शून्य में विलय हो जानेवाले हैं, व्यर्थ एवं निष्फल हैं। कि सुक्के रक्खें सिंचिएण, प्रविणीयं कि सबोहिएण। 1.20.2 -सूखे वृक्ष को सींचने और विनयहीन पुरुष को संबोधित करने से क्या लाभ ? हिंसा कि होइ हिंस जगसंतियरी, सिलणावइ मूढ़ तरंति सरि। 2.15.4 -क्या हिंसा संसार में शांतिकारी हो सकती है ? मूर्ख ही पत्थर की नाव से नदी पार करना चाहते हैं। पसुणासई जइ हिंसई परमधम्मु उप्पज्जइ । तो बहुगुणि मेल्लि वि मुरिण पारद्धिउ पणविज्जइ ॥ 2.17.19-20 -यदि पशुवधरूपी हिंसा से परम धर्म की उत्पत्ति हो सकती है तो गुणसमृद्ध साधु को छोड़कर पारधी (शिकारी) को प्रणाम क्यों न किया जाय ? इस प्रकार पाठक देखेंगे कि महाकवि के ये सुभाषित कितने मधुर, कितने प्रभावक हैं ? अज्ञानांधकार एवं निराशा में गर्त व्यक्ति के मानस को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करने और प्राशा से परिपूर्ण करने की शक्ति से कितने सक्षम और अोतप्रोत हैं।

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