Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 66
________________ जैनविद्या करने पर भी सुहावना नहीं दीखता, उसको जितना ही सजानो उतना ही भीषण बना रहता है, बचाते बचाते भी दुःखी हो जाता है, चर्चित करते रहने पर भी घृणित ही बना रहता है, समझाते-समझाते भी मृत्यु से भयभीत रहता है, कई बार दीक्षित होकर भी साधुओं पर भौंकता है, बारंबार शिक्षा देने पर भी गुणों में रमण नहीं करता, दुःख सहने पर भी उपशम भाव धारण नहीं करता, रोकते रोकते भी पापकर्म करना नहीं छोड़ता, करता ही जाता है, प्रेरित किये जाने पर भी धर्म का आचरण नहीं करता, बार-बार मालिश करने पर भी रुक्ष बना रहता है तथा रुक्ष रखते-रखते भी व्याधिग्रस्त हो जाता है, मलतेमलते भी वात रोग लग जाता है, उष्ण पदार्थों का सेवन करते रहने पर भी कफ-खांसी से पीड़ित हो जाता है, चमड़े से प्राबद्ध होने पर भी समय पर सड़ जाता है, परहेज रखते-रखते भी कुष्ट का रोगी बन जाता है तथा रक्षा करने पर भी यमराज के मुंह में चला जाता है। बिना जीव के शरीर की अकिंचित्करता बताते हुए कवि उदाहरण देता हैविणु धवलेण सयडु कि हल्लइ, विणु जीवेण बेहु किं चल्लइ। 3.21.3 -क्या बिना बैल के गाड़ी हिल सकती है और बिना जीव के शरीर चल सकता है ? व्यर्थ कार्य अपात्र को दान, मोहांध को व्याख्यान और बकवादी मनुष्य के गुणगान की व्यर्थता सिद्ध करते हुए कवि ने किस प्रकार उदाहरणों पर उदाहरणों का प्रयोग किया है पढिये और आनन्द लीजिये अंधे पढें बहिरे गीयं, ऊसर छेत्ते ववियं वीयं । संढे लग्गं तरुणि कडक्खं, लवरणविहीणे विविहं भक्खं ॥ अण्णाणे तिब्बं तवचरणं, बलसामत्यविहीणे सरणं । असमाहिल्ले सल्लेहणयं, णिद्धणमणुए णवजोव्वणयं ॥ णिन्भोइल्ले संचिय दविणं, णिएणेहे वरमाणिणि रमणं । अवि य अपत्ते दिएणं दाणं, मोहरबंधे धम्मक्खाणं ॥ पिसुणे भसरणो गुणपडिवणं, रण्णे रूएणं विय लइ सुएणं। 1.19.2-8 -अंधे के आगे नाचना, बहरे के आगे गीत गाना, ऊसर भूमि में बीज बोना, नपुंसक पुरुष की अोर तरुणी स्त्री का कटाक्ष करना. अनेक प्रकार के भोजन होने पर भी उनका लवण विहीन होना, अज्ञानपूर्वक तीव्र तपश्चरण करना, बल और सामर्थ्य से विहीन पुरुष की शरण में जाना, समाधिरहित मनुष्य द्वारा सल्लेखना धारण करना, निर्धन मनुष्य के लिए नवयौवन, नहीं भोगने के लिए मंचित द्रव्य, श्रेष्ठा मानिनी स्त्री का स्नेहविहीन पुरुष के साथ रमण, अपात्र

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