Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 64
________________ जैनविद्या धन धर्म भाग्य मद कर करने लगता है । का भी कहना नहीं मानता । - प्रत्यन्त क्रूर दुराग्रह से ग्रस्त मनुष्य नहीं करने योग्य कार्य को करने योग्य समझ मिथ्या - मतरूपी उन्माद से उन्मत्त मनुष्य बुद्धिमान् पुरुषों श्रत्थु केरण परिचत्त । 2.1.12 -धन को किसने छोड़ा है ? धर्म की महिमा का बखान कवि इन शब्दों में करता है धम्मिं सग्गु मोक्खु पाविज्जइ । धम्मं होंति मणु हरि हलहर, धारण चक्कवट्टि विज्जाहर || 3.26.8-9 - धर्म से मनुष्य को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है, और धर्म से ही मनुष्य हरि, हलधर, चारणऋद्धिधारी, चक्रवर्ती और विद्याधर बन जाता है । **************. 1 59 धम्मिं होंति जिरिंगद गरिद वि धम्मिं होंति सुरिद फरिंगद वि । 3.26.11 - धर्म से ही मनुष्य जिनेन्द्र, नरेन्द्र, सुरेन्द्र और फणीन्द्र भी बनता है । हा खल विहि हयसुयरण सुह । — सज्जनों के सुख को नष्ट करनेवाला विधाता हाय बड़ा दुष्ट है । बलवन्त जीवहँ कम्मु । 2.26.20 — जीवों के कर्म बड़े बलवान् होते हैं । प्रणम्मि जिमियम्मि एण्गो कहँ घाई । 3.13.8 — अन्य के भोजन करने से क्या किसी अन्य की भूख मिट सकती है ? यौवन एवं धन के मद को सन्मार्ग की प्राप्ति में बाधक बताते हुए कवि की मान्यता है— जोव्वरणमउ सिरिमउ जेत्थु फार वट्टति तेत्थु बहलंघयार । कह दीसह तह सुहमग्गुसार, बुहरवियरेहि विणु विहिउ चारु ।। 1.5.10-11

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