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जसहरचरिउ केर सुहासिय-वयरगाई
- श्री भंवरलाल पोल्याका
प्रकृति ने अपने मनोगत भावों को ग्रन्य व्यक्ति तक संप्रेषण करने की जो भाषागत विशेषता मानव को प्रदान की है वह विश्व के अन्य किसी प्राणी में नहीं है । भाषा की उत्पत्ति के इतिहास का सम्बन्ध मानव के इस धरा पर जन्म के साथ जुड़ा है । उसका प्रतीत इतना दीर्घ है कि उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई कालावधि निश्चित करना सम्भव नहीं । इस बारे में अब तक जो कुछ भी कहा गया अथवा लिखा गया है वह केवल अनुमानों पर प्रधृत है और इसी कारण उनमें पर्याप्त मत - वैभिन्न्य भी है ।
मानव की यह भाषा नदी के बहते नीर की भाँति गतिशील एवं परिवर्तनशील है । जिस प्रकार नदी का प्रवाह सतत् चालू रहता है किन्तु उसकी धाराओं में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है उसी प्रकार भाषा का प्रवाह भी जब से मानव ने बोलना सीखा तब से ही गतिमान किन्तु परिवर्तनस्वरूपी है । वैदिक, प्राकृत, संस्कृत. हिब्र ू, अपभ्रंश, योरोपीय, लेटिन, फारसी, अरबी आदि भाषाओं की उत्पत्ति इसी परिवर्तनशीलता का परिणाम है । अपभ्रंश भाषा और उसका साहित्य हिन्द प्रार्य भाषा के मध्यकाल के तृतीय स्तर पर विकसित हुई ऐसा भाषाविदों का कथन है ।