Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 57
________________ जनविद्या परमात्मा विषयक सहमति जसहरचरिउ में इस प्रकार अभिव्यक्त हुई है-इन्द्र, प्रतीन्द्र, चन्द्र, नाग, नर तथा खेचरों द्वारा पूजित एक सहस्र आठ लक्षणों के धारक, केवलज्ञान लोचन, अष्ट प्रातिहार्यों के अमल चिह्नधारी जैसे मानो चन्द्रमा उदयाचल पर स्थित हो, धर्म-चक्र द्वारा लोगों के मनोगत मलिन भावों को दूर करनेवाले तथा वीतरागी मुनिवरों में मुनिपुंगव सकल परमात्मा होते हैं । शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा जानना चाहिये । आत्मा या जीव दोनों ही शब्द अनर्थान्तर हैं। शरीर और आत्मा एकक्षेत्रावगाही होकर भी पृथक्-पृथक् हैं? यह जनर्षियों या विवेकप्रवणों की दृढ़ आस्था है । जसहरचरिउ इस आस्था के पोषणार्थ सैद्धान्तिक शब्दावलि के बिना व्यावहारिक और सयुक्तिक विवेचन प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार द्रष्टव्य है.. जिस प्रकार वृक्ष के पुष्प से उसका गन्ध भिन्न नहीं है उसी प्रकार देह से जीव भी भिन्न नहीं है तथा जैसे पुष्प के विनष्ट होनेपर गन्ध स्वयमेव नष्ट हो जाती है वैसे ही शरीर का नाश हो जाने पर जीव भी विनष्ट हो जाता है। अतः यथार्थतः देह और जीव एक ही हैं --ऐसा अज्ञानी मानते हैं। विचार करने पर उनकी यह दलील अधिक महत्त्व नहीं रखती क्योंकि चम्पक आदि पुष्प की वास-गंध तेल में लग जाती है, समा जाती है और इस प्रकार जैसे पुष्प से उसकी गन्ध पृथक् सिद्ध होती है वैसे ही जीव की भिन्नता भी देखी जाती है ।10 प्राणियों में शरीर के माध्यम से जो चेष्टाएं देखी जाती हैं वे सभी प्रात्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं। एतदर्थ भी जसहरचरिउ मौन नहीं है। वह कहता हैबिना जीव के तो नेत्र अपने आगे खड़े बैरियों और मित्रों को देख नहीं सकते। बिना जीव के जीभ किसी वस्तु के गुण कैसे पहिचानेगी, नाना रसों के स्वाद कैसे चखेगी? बिना जीव के केसर का आदर कौन करेगा, घ्राणेन्द्रिय गंध को कैसे जानेगी? जीव के बिना कान सुन भी तो नहीं सकते—इस प्रकार जीव के बिना शरीर के पांचों तत्त्व निश्चेष्ट हैं ।11 जीव में न स्पर्श है, न रस, न गंध, न रूप । वह शब्द से भी रहित है, तथापि पांचों इन्द्रियों द्वारा . इन गुणों को जानता है ।12 जैनमतानुसार प्रत्येक द्रव्य पूर्णतः स्वाधीन और स्वसत्तासमवेत है। तात्पर्य यह है कि वह अपने अस्तित्व आदि के लिए पर-प्रभावित नहीं है। जीव भी एक द्रव्य है जिसके सन्दर्भ में उक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए पुष्पदंत ने लिखा है-जीव का स्वभाव अन्य वस्तु के आधीन नहीं है ।13 उन्होंने "सच्चेयरण भावें सच्चवंतु"14 कहकर जीव को चेतन स्वभाव से चिद्-स्वभावी कहा है "जीव के बिना चेतन भाव कहाँ प्रकट हो सकता है"15 कह कर जीव का लक्षण चैतन्य बताया है जो जैनमान्यता में सर्वसम्मत है। प्रात्मा के सन्दर्भ में जसहरचरिउ का सर्वतोधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है आत्मा की अमरता के बोध से पाठक को परिचित कराना। यह सुनिश्चित है कि अनादि संसार में भटकते प्राणी को जब तक यह बोध न हो कि मैं शाश्वत अर्थात् अनादि अनंत प्रवाह में अविनश्वर हूँ तब तक वह मुक्ति-मार्गारोहण एवं पाप परित्यजन का सम्यक् पुरुषार्थ कर

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