Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 55
________________ 50 जनविद्या क्षुल्लक प्रादि श्रावकों के साधनामय जीवन का अंकन हो जाने से अन्तरात्माओं का और राजा मारिवत्त, भैरवानन्द आदि के चरित्र-चित्रण से बहिरात्माओं का व्यक्तित्व साकार हो उठा है । सरल, सहज और सुललित प्रवाह में परिभाषात्मक अवधेय के बोझ से बचाकर भावावबोध के स्तर पर आत्मा के विविधरूपों का ज्ञान करा देने में जसहरचरिउ अथ से इति पर्यन्त प्रयासशील दिखाई देता है जो इसकी अपनी विशेषता है। अन्तरात्मा और बहिरात्मा के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए जसहरचरिउ का अधोलिखित संक्षिप्त सन्दर्भ द्रष्टव्य है "दूसरों के लिए ताप-दुःख का निवारण करनेवाला शीतल, सौम्य एवं रम्य अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ एक मुनिराज को हिंसाचारी कोतवाल ने देखा । वे मुनि इहलोक और परलोक संबंधी आशाओं से रहित तथा राग-द्वेष आदि दोषों से मुक्त थे। मन, वचन और काय को वशीभूत कर उन्होंने मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीनों शल्यों को जीत लिया था । ऋद्धि, रस और सुख रूप तीनों गारव को नष्ट कर वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी रत्नों से विभूषित थे तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायरूपी तुष के लिए अग्नि समान थे । पाहार, परिग्रह, भय और मैथुन संज्ञाओं का विनाशकर ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और निष्ठापन इन पांचों समितियों के सद्भाव को प्रकाशित कर रहे थे। अहिंसा, अचौर्य, अमृषा, अव्यभिचार और अपरिग्रह नामक पंच महाव्रतों को धारण करने में धुरन्धर उन्होंने मिध्यात्व. अविरति. प्रमाद, . कषाय और योग इन पांचों प्रास्रव द्वारों का निरोध कर लिया था। पांचों इन्द्रियों को जीत पंचमगति अर्थात् मोक्ष पाने हेतु वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य नामक पंचाचार के महापथ पर चल रहे थे। षट् जीवनिकायों पर स्थिररूप से दयावान् सप्तभयरूप अन्धकार को दूर करने में दिवाकर, आठों ही दुष्ट मदों के निवारक तथा अष्टम पृथ्वी निवास अर्थात् मोक्षसुख सम्बन्धी ज्ञान की खान उन मुनिराज ने सिद्धों के अष्टगुणों पर अपना मन संयोजित कर रखा था और नवविध ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से ब्रह्मचारी थे । उन्होंने दशविध धर्म का लाभ लिया था,- प्राणी हिंसा का निषेध किया था, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का सुविचारित उपदेश दिया था, बारह तपों का उद्धार किया था एवं तेरह प्रकार से चारित्र का विभाजन किया था । वे मुनि मद, मोह, लोभ, क्रोध, आदि शत्रुओं के लिए रण में दुर्जेय थे । उन्होंने तपश्चरण की साधनारूपी अग्निज्वालाओं द्वारा काम का पूर्णतः दहन कर डाला था। ऐसे उन मुनिवर को देखकर वह तलवर (कोतवाल) रुष्ट हो गया । वह दुष्ट, धृष्ट, पापिष्ठ चिन्तन करने लगा-यह बिगड़ा हुअा, नंगा, दुःख से पीड़ित, हमारी भूमि को दूषित करने बैठा है अतः इस अपशकुन श्रमण को कोई दूसरा देख पाये इसके पूर्व ही इसे इस राजोद्यान से निकाल भगाता है। अपने मन में कितना भी क्रुद्ध होऊं किन्तु कपटपूर्वक इसके बिना पूछे ही मैं कुछ पूछता हूँ फिर वह जो कुछ जैसा भी कहेगा उसमें उसी प्रकार दूषण बतलाऊँगा और इस अपशकुन को निकाल बाहर काँगा । इस प्रकार विचार करते हुए उस चोरों के यमराज ने मायाचारी से साधु की वन्दना की। मुनि ने यह जान लिया था कि यह दुर्जन और भक्तिहीन है फिर भी आशीर्वाद दे दिया और कहा-तुम्हें धर्मबुद्धि प्राप्त हो, आत्मगुण

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