Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 29
________________ 24 जैनविद्या जिनेन्द्र स्तुति गरिदेण णाइंददेविदवंदो, थुश्रो देवदेवो श्रणदो जिणिदो । महापंच कल्ला रणरणाराहिणारगो, सयाचामरोहेण विज्जिज्जमारगो । पडू पहू तु गसिंहासरत्थो, सभासासमुम्भासियत्यो पत्थो । विमुक्कामपुप्फट्ठीसुयंधो, अलं दुदुहीरावपूरंतरंधो । विरेहंत सेयायवत्तो विदोसो, असोयमासीरणपक्खिदघोसो । फुरंतेक्कभामंडलो मूरिसोहो, प्रसंगी असण्णो अलोहो प्रमोहो । भावार्थ -- हे देवों के देव, आप अनिन्द्य हैं । आपके पंचमहाकल्याणक हुए हैं। आप ज्ञानरूप हैं । आप पर सदैव चमरों के समूह दुलते रहते हैं। आप प्रभु के भी प्रभु हैं और उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं । आप सब जीवों को उनके समझने योग्य भाषाओं में पदार्थों का उपदेश देते हैं । आप प्रशंसनीय हैं । आपके ऊपर देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि की जा रही है जिसकी सुगन्ध उड़ रही है एवं दुन्दुभि की ध्वनि से समस्त भुवन भर रहा है। आपके ऊपर श्वेत छत्र शोभायमान हैं । आप दोषरहित हैं । अशोक वृक्ष पर बैठे हुए पक्षिराज आपका जयघोष कर रहे हैं। आपका अद्वितीय भामण्डल चमचमा रहा है । आपकी अद्भुत शोभा है । आप परिग्रह रहित, संज्ञा रहित, लोभ रहित और मोह रहित हैं । - गाय ० 2.11.1-6

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