Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 32
________________ जैन विद्या बुट्ठो परिपालणु जहि किज्जइ सो ग्रहम्मु जहि साहु वहिज्जइ । 3.2.10 धर्म वह है जहाँ दुष्ट का परिपालन और साधु का वध किया जावे । धरधम्मु धरिज्जs रिगग्गहे । लोहस्य पमारण परिग्गहेण ॥ 4.2.8 लोभ - निग्रह और परिग्रहप्रमाण द्वारा ही गृहधर्म धारण किया जाता है । तित्थ रिसि ठारणाइँ पवित्तइँ । 9.13. घत्ता जहां ऋषियों का वास होता है वे तीर्थ - पवित्र होते हैं सिहि उह सीयलु होइ मेहु । 1.5.5 अग्नि उष्ण और मेघ शीतल होता है । अपने अनुभवों को भी कवि ने सूक्तियों में उंडेल दिया है। उनमें शाश्वत् सत्य है, दूरदर्शिता है, संकेत है विसंगतियों से बचने का, उनसे जूझने का एवं पराजय प्राप्त होने पर धैर्य धारण करने का । इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है विहो सुहि वंक वयणु । 2.14.10 अभागे मनुष्य से मित्र भी मुंह फेर लेता है । श्रइसुंदररूवें रूउ ल्हसइ । 2.4.8 एक सुन्दर रूप प्रतिसुन्दर रूप के आगे फीका पड़ जाता है । वीरू वि संगामरंगि तसइ । 2.4.8 वीर पुरुष भी संग्राम में त्रास पाता है । पियमाणुसु प्रण्णु जि लोउ जिह । from बीस पुणु वि तिह ॥ 2.4.9 : जं जारगइ सं तो वि श्रणुट्ठउ । 5.6.7 जानकारी के अनुसार ही अनुष्ठान किया जाता है । अपना प्रिय मनुष्य भी स्नेह के फीके पड़ने पर अन्य लोगों के समान साधारण दिखाई देने लगता है । पुण्य और पाप का माहात्म्य भ कि पुण्यवंतो कियउ । 2.14.6 कहो ! पुण्यवान् के लिए क्या नहीं किया जाता है ? 27 जह पावपसत्तहो सुहसहणु, वालिद्दिएण पावइ रयणु 1 2.6.17 पापासक्त को दारिद्र्य के कारण सुखदायी रत्न प्राप्त नहीं होते । रंग मिलइ रायलच्छि श्रहगारहो । 3.2.11 पापी को राजलक्ष्मी नहीं मिलती ।

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