Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 52
________________ जसहरचरिउ में . प्रात्मा सम्बन्धी विचार . –श्री श्रीयांशकुमार सिंघई - अपभ्रंश के यशस्वी कवि अभिमानमेरु पर पापभीरु पुष्पदंत की अन्तिम कृति: जसहरचरिउ हिंसा में रत शासकों, शासितों एवं धर्मान्धजनों को अहिंसक बनने की सहज, सफल और प्रबल प्रेरणा है । यह कृति मानव-मात्र ही नहीं अखिल प्राणियों के सुखमय जीवन जीने के अधिकार का स्फुरण करती हुई लोकोपकार के लिए अहिंसागभित सर्वोदयी समुदात्त भावनाओं के प्रतिपादन से भारत की मूल प्रात्मा का दिग्दर्शन कराती है। अहिंसामूलक विचार ही भारत की प्रात्मा है, पार्यों, महर्षियों, सज्जनों और अनंधश्रद्धालुओं के प्राण हैं। यह सत्य है कि भारत में फलने-फूलनेवाले सभी धर्मों ने, वाङमय ने, भारतीय संस्कृति और समाज ने सदा ही अहिंसा की महत्ता और उपयोगिता साबित की है तथा अपने मूल में स्वयं भी उसकी गौरव सुगंधी से गंधायमान हुए हैं । वस्तुत: अहिंसा के माध्यम से अर्थात् स्वयं महिंसक जीवन जीने के संकल्प से सारे विश्व को सुखशांति का मार्ग बताना हमारी संस्कृति का मूल मन्तव्य रहा है । संस्कृति के इस मन्तव्य से समन्वित साहित्य ही भारत का आत्मीय पौर अमर साहित्य हो सकता है । 'जसहरचरिउ' इसी श्रेणी का एक निदर्शन है। - अहिंसा तो दूर उसकी चर्चा-वार्ता भी पुरतो विद्यमान भौतिक अचिद् वस्तुओं से नहीं की जा सकती क्योंकि अहिंसा का सद्भाव या उसकी चर्चा-वार्ता का उपक्रम मात्र चैतन्य प्राणों से स्पन्दित जीवन में ही संभव होता है। चैतन्य प्राणों से स्पन्दित यही जीवन दार्शनिक मन्दावलि में 'आत्मा' माना गया है।

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