Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 51
________________ 46 जनविद्या पुष्पदंत ने अपना परिचय महामंत्री नन्न-कर्णाभरण-स्वरूप महाकवि के नाम से दिया है । वे अपने आपको श्यामल वर्ण, मुग्धा ब्राह्मणी के उदर से उत्पन्न, काश्यप गोत्रीय केशव के पुत्र, जिन-पद-भक्त, धर्मासक्त, व्रतसंयुक्त, श्रेष्ठ काव्यशाक्तिधारी, शंकारहित, अभिमानांक अथवा "अभिमानमेरु" और प्रसन्नमुख कहते हैं । यह रचना उनकी श्रेष्ठ काव्यशक्ति का निःसंदेह प्रमाण है। इसी यशकाया से कवि अमर है । वृद्धावस्था तारुण्ण रण्णि दड्ढे खलेण, उगि लग्गि कालाणलेण । सियसभार णं छार घुलइ, थेरहो बलसत्ति व लाल गलइ । थेरहो पावि णं पुण्गसिटि, वयरणाउ' पयट्टइ रयरणविट्ठि। जिह कामिरिणगइ तिह मंद दिट्टि, थेरहो लट्ठी वि रण होइ लट्ठि। हत्यही होती परिगलिवि जाइ, कि अण्णविलासिणि पासि ठाइ । थेरहो पयाई ण हु चिक्कमंति, जिह कुकइहि तिह विहडेवि जंति । थेरहो करपसरु ण विठ्ठ केम, कुत्थियपहु विरिणहयगामु जेम। थेरहो जरसरिहि तरंगएहि, घोहउ तणुलोणु अहंगएहिं। . ___ भावार्थ-वृद्धावस्थारूप उग्र कालाग्नि द्वारा तारुण्यरूपी वन के जला डालने पर उसके श्वेत केशों का भार मानो, उसकी भस्म को उड़ाता है। वृद्ध पुरुष को मुख को लार के साथ उसको बल-शक्ति भी गिर जाती है। वृद्ध के पाप से उसकी पुण्य-सृष्टि मानो उसकी रदन-वृष्टि (दांतों का पतन) के रूप में उसके मुख से गिर जाती है । उसकी दृष्टि उसी प्रकार मन्द हो जाती है जैसे स्त्री की गति । वृद्ध के पद (पैर) भी बराबर नहीं चलते। वे उसी प्रकार लड़खड़ाते हुए चलते हैं जैसे कुकवियों द्वारा विरचित पद। वृद्ध के कर (हाथ) का प्रसार होता दिखाई नहीं देता जैसे कुत्सित स्वामी से पीडित हुए ग्राम में करप्रसार (राजशुल्क का संचय) नहीं देखा जाता। वृद्ध के शरीर का लावण्य मानो जरारूपी नदी की अभंग तरंगों द्वारा घोकर बहा दिया जाता है। -जस० 1.28.1-8

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