Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 45
________________ जैनविद्या परियकवालइ, परकंकालइ । बहुरंकालइ, अइबुपकालइ । पवरागारि, सरसाहारि। . सहिं चेलि, वर तंबोलि । महु उवयारिउ, पुणि पेरिउ । गुणभत्तिल्लाउ, गणुं महल्लउ । होउ चिराउसु,. .... 4.31.13-21 अर्थात् - इस समय देशवासी नीरस हैं। दुष्कृत्यों से मलीन हैं। कवियों के निंदक हैं । देश में दुःसह दुःख व्याप्त है। जहां-तहां नरकंकाल तथा कपाल पड़े दिखाई देते हैं । अधिकांश घरों में दरिद्रता व्याप्त है। ऐसे दुष्काल में गुणग्राही महामन्त्री नन्न ने मुझे अपने महल में रखकर सरस आहार, चिकने वस्त्र और तांबूल से मेरा बहुत उपकार किया और इस कार्य में प्रेरित किया । वे चिरायु हों । अंत में उन्होंने यह भी कहा है जय यय जिरणवर । जय भय मय हर। विमलु सुकेवलु। गाणु समुज्जलु। महु उप्पज्जउ । एत्तिउ दिज्ज। 4.31.28-30 अर्थात्-जिनेन्द्र की जय हो । भय और मद का हरण करनेवाले महापुरुषों की जय हो । मुझे विमल और उज्ज्वल केवल-ज्ञान की प्राप्ति हो । मैं इतना ही यह महाकवि की अन्तिम कृति प्रतीत होती है। इस काव्य के नायक यशोधर का चरित्र भारतीय भाषाओं में बहुत लोकप्रिय रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ के विद्वान् संपादक डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य ने 29 रचनाओं का उल्लेख किया है जो दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक लिखी गई । इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल और हिन्दी भाषाएँ समाविष्ट हैं, जिनमें इस ग्रंथ के अतिरिक्त सोमदेव कृत यशस्तिलक और वादिराज कृत यशोधर चरित्र प्रकाशित हो चुके हैं। इन उन्तीस ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन, कथावस्तु, इतिहास, काव्य, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध हो सकता है। कथावस्तु इतनी ही है कि उज्जैन का राजा यशोधर और उसकी माता चंद्रमती प्राटे का मुर्गा बनाकर देवी के आगे उसका बलिदान करते हैं। फलतः विषखाद्य से उनकी मृत्यु होती है और वे दूसरे जन्मों में मयूर और श्वान, नकुल और सर्प, मत्स्य और सुंसुमार, दोनों प्रज, फिर अज और महिष, फिर दोनों कुक्कुट होते हैं। अंत में कुछ सुसंस्कारों

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