Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 47
________________ जैन विद्या दूसरा प्रक्षेपांश यशोधर के विवाह वर्णन का इसी संधि के चौबीसवें से लेकर सत्ताईसवें कड़वक तक है, जिसका अंत इस प्रकार है जं वासवसेरिंग पुव्वि रहउ । तं पेक्खिवि गंधव्वेर कइउ । अर्थात् - पूर्वकाल में जो रचना वासवसेन ने की थी उसे देखकर गंधर्ब ने यह कथन किया है । खेद की बात है कि वत्सराज की रचना अभी तक अप्राप्य है । 42 तीसरा प्रक्षेपांश चौथी संधि के बाईसवें कड़वक के अंत से लेकर तेतीसवें कड़वक के अंत तक है । तीसवें कड़वक में गंधर्व कवि ने इन प्रक्षेपों का पूरा वर्णन लिख दिया है । वे कहते हैं कि प्राचीन काल में जिसे कवि ने वस्तु छन्द में लिखा था, उसे मैंने यहां पद्धड़िया छंद में लिख दिया है । पात्रों के भवांतरों का यह वर्णन कृष्ण के पुत्र गंधर्व ने एकाग्रचित्त होकर किया है । इसका मुझे दोष न दिया जाय क्योंकि पूर्वकाल में जो रचना कवि वच्छराज ने की थी उसी का सूत्र मैंने ग्रहण किया है । ये अंश इस काव्य में इस बुद्धिमानी से जोड़े गये हैं कि इस ग्रन्थ के सम्पादक डा० वैद्य तथा डा० हीरालाल जैन दोनों चाह कर भी इसे अलग नहीं कर सके क्योंकि वैसा करने पर यह काव्य अपूर्ण और असंबद्ध रह जाता। इसलिए इन्हें इस काव्य का अविभाज्य अंश ही माना जाना चाहिये । महाकाव्य • कवि गंधर्व के शब्दों में "सरस्वतीनिलय", "कविकुलतिलक", "कविराज” पुष्पदंत की यह सुन्दर रचना साहित्य दर्पण में इंगित महाकाव्य के लगभग सभी लक्षणों से युक्त है और इसमें शान्त, करुणा, श्रृंगार और वीर रस का तो परिपाक हुआ ही है, साथ ही अद्भुत, भयानक और वीभत्स रसों का भी इसमें पर्याप्त समावेश है । देश, काल और परिस्थिति तथा भावों का वैविध्य दर्शनीय है । छन्द, अलंकार, रस, भाव, शब्द सभी काव्यगुणों से उनकी रचना श्रोतप्रोत है । उपमा औौर उत्प्रेक्षा की तो मानो वे झड़ी ही लगा देते हैं । संधियों को अनेक घत्ता छंद रहता है। कभी-कभी कड़वक रचना शैली अपभ्रंश काव्यों की अपनी विशिष्ट है। अनेक संधियों में विभाजित किया जाता है और कड़वक में अनेक प्रर्धालियां और अंत में एक प्रारंभ में दुवई छंद भी रहता है। स्वयंभू और पुष्पदंत दोनों की सभी रचनाएँ इसी शैली में हैं । स्वयंभू के कथनानुसार यह शैली उन्हें चतुर्मुख से प्राप्त हुई थी । हिन्दी में जायसी और तुलसीदास ने चौपाई तथा दोहा छंदों में इसी शैली का प्रयोग किया है । इसके अनुसार काव्य को कड़वकों में । प्रत्येक इस महाकाव्य में अधिकतर पज्झटिका (पद्धडिया) और अलिल्लह ( अडिल्ल) छंदों का उपयोग किया गया है । घत्ता छंद 24, 28 और 31 मात्राओं के विभिन्न संधियों में

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