Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 40
________________ जैनविद्या 35 राजपुरोहित की सलाह से जीव-बलि कराने का आग्रह करने लगी। मैंने बहुत समझाया व जीवबलि न करने की मेरी प्रतिज्ञा को सुन उसने आटे के मुर्गा-मुर्गी की बलि देने का आयोजन किया, जिसका विरोध मैं नहीं कर सका। इस आयोजन व दुःस्वप्न की बात मेरी रानी अमृतमति समझ गयी कि मैंने उसके पाप को देख लिया है तो उसने एक चाल खेली । उसने मेरे सम्मानार्थ समूचे रनिवास में एक प्रीति-भोज का आयोजन किया। मुझे व मेरी माता को भी निमंत्रण मिला, जिसे हम अस्वीकार न कर सके। प्रीति-भोज के विशेष लड्डुओं में उसने जहर मिलाया था वे लड्डू मुझे और मेरी माता को परोसे गये थे। लड्डू खाकर मेरी माताजी परलोक सिधार गई और मैं बेसुध होकर गिरा किन्तु कुछ होश था। मेरी भार्या अमृतमति ने मेरी छाती पर चढ़कर मेरा गला घोंट दिया। फल-स्वरूप में भी पंचतत्त्व में समा गया। यह सब देख कर मेरा पुत्र भी मूच्छित हो गया। मंत्रियों ने मेरे पुत्र जसवई को समझा-बुझाकर राज-तिलक के लिए राजी किया क्योंकि राज्य बिना राजा के सूना मामा जाता है । धूम-धाम से मेरे पुत्र का राजतिलक हुआ। मर कर मैं कर्मोदय से मोर तथा मेरी मां मोरनी के पर्याय में उत्पन्न हुए। हम वन में भ्रमण कर रहे थे तो एक शिकारी ने हमें पकड़ कर कोतवाल के हवाले किया और कोतवाल ने राजा को दिया। वहीं महल में हमें रखा गया । वहां रानी अमृतमति को अपने प्रेमी से केलि करते देख मैं रानी के ऊपर झपटा । रानी ने मेरी टांग तोड़ दी व कुत्तों से उसने हम दोनों का सफाया करा दिया। हम दोनों मर कर सांप व नेवला हुए फिर कुत्ता व मछली हुए। इस प्रकार नाना योनियों में हमने विचरण किया और कष्ट उठाये । उधर रानी अमृतमति की बुरी दुर्दशा हुई। उसे गलित कोढ़ हुआ। उसका शरीर गल गल कर गिरा और वह बड़े दुःख से मर कर नरक में गई। हम फिर मुर्गा-मुर्गी हुए और एक वन खण्ड में कोतवाल के द्वारा पकड़े गये । उसी वन में एक मुनि से कोतवाल की भेंट हुई । मुनि ने हमारे जन्म-जन्मान्तरों की कथा सुनाई कि हमारा जीव यशोधर व मुर्गी का जीव राजमाता था। ऐसा जानकर कोतवाल ने हमें तुरन्त मुक्त कर दिया। हमें भी अपना सब जाति-स्मरण हो गया । हम मुक्त तो हुए किन्तु शीघ्र ही उस समय के राजा के शब्द-भेदी-बाण से हम हत कर दिये गये । मर कर हम दोनों अपने पुत्र राजा जसवई की रानी कुसुमावली के गर्भ में पुत्र और पुत्री युगलरूप उत्पन्न हुए। मेरा नाम अभयरुचि रखा गया और मेरी बहन का नाम अभयमति हुआ। वहीं महल में हम दोनों बड़े हुए। हम दोनों बहुत सुन्दर थे। मैंने राजकीय सभी विद्यायें सीख ली और पिता राजा जसवई ने पूर्ण योग्य समझकर मुझे युवराजपट्ट बांधने का शुभ संकल्प किया। शानदार राजकीय भोज के हेतु मांसादि लाने मेरे पिता 500 शिकारी कुत्तों के साथ वन में मृगया के लिए निकले । वन में एक वृक्ष के नीचे एक नग्न मुनि को बैठे देखकर राजा ने विचारा कि शुभ काम के प्रारम्भ में यह नंगा अपशकुनरूप क्यों मेरी दृष्टि-पथ में आया ? इससे उसने खूख्वार कुत्तों को मुनिवर का नाश करने भेजा किन्तु वे कुत्ते मुनिराज के समीप जाकर शांत हो गये तो राजा और भी क्रोधित हुआ और तलवार लेकर मुनिराज को मारने दौड़ा किन्तु बीच में

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