Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 39
________________ 34 जनविद्या आकाश-गामिनी विद्या मिल जावे जिससे आसपास के राजाओं के महलों व अंतःपुरों में चुपचाप जा सके व नव-यौवन-सम्पन्न नवनीतांग राजकुमारियों व रूप-सम्पन्न नारियों से विषयभोग का आंनद ले सके, साथ ही अपनी विद्या के बल से स्वयं सुरक्षित रह सके । उसकी यह चाहना उत्कट होती गई। इसके लिए वह मंत्र-वादियों, ऋद्धिधारी-योगियों, अघोरियों, कापालिकों व याज्ञिकों की खोज में रहता है । ___ एक दिन विचित्र वेश-भूषा में बना-ठना, ऊंचे पूरे कद का भैरषानन्द नाम का एक कापालिक राजसभा में आता है और वह अपनी ऋद्धि-सिद्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण कथनी से वर्णन करता है तथा राजा मारिदत्त को आकाश-गामिनी विद्या प्राप्त कराने का वायदा करता है लेकिन इसके लिए वह राजा से चंडमारी देवी की विशेष पूजन व अनुष्ठान विधि की आवश्यकता बताता है । उस अनुष्ठान में जलचर, थलचर व नभचर के जीव-मिथुनों की बलि दी जायगी । बलि में एक सुन्दर अविकलांग नवयुवक व एक सुन्दरी नवयुवती की प्रारम्भ से ही मावश्यकता होगी। राजा की आज्ञानुसार राज-कर्मचारी सब जीव-मिथुनों को एकत्र करते हैं और योग्य नर-मिथुन की तलाश करते हैं। उसी समय उस नगर के एक उपवन में मुनि सुदत्त का संघ ठहरा था । संघ के क्षुल्लक अभयरुचि और क्षुल्लिका अभयमति नगर में आहार को जा रहे थे । तभी उनकी नूतन वय व सर्वांग-मनोहर अवयवों को देखकर राजकर्मचारी उन्हें पकड़ते हैं और राजा के पास ले जाते हैं। राजा भी ऐसी अनिन्द्य आकर्षक प्राकृति को देखकर विस्मित हो जाता है, फलतः उनसे उनका परिचय जानने की इच्छा प्रकट करता है। ..तब नवयुवक क्षुल्लक ने बोलना प्रारम्भ किया- "हे राजन् ! आपने अवन्तिका के नृपति जसबंधु का नाम सुना होगा। उनकी रानी का नाम था चंद्रमति । मैं उन दोनों का पुत्र यशोधर था । शस्त्र-शास्त्र विद्या में पारंगत जब मैं नवयौवन की देहली पर पहुंचा तो मेरा विवाह विदर्भ देश की राजकुमारी अमृतमति से कर दिया गया । फिर मेरे पिता मुझे राज्य सौंपकर तप करने चले गये । मेरी पत्नी प्रति रूपवती और मधुर भाषिणी थी। मैं उस पर अत्यन्त आसक्त था। एक रात जब मैं अपने महल के शयनागार में अपनी रानी के साथ सो रहा था, तो मुझे सोता समझ मेरी रानी सेज से उठी और कहीं जाने लगी। मेरी नींद भी उचट गई और मैं भी हौले-हौले उसी के पीछे हो लिया। मैंने देखा कि वह अपने एक कुबड़े प्रेमी के पैरों पर गिड़गिड़ा रही है और उसका प्रेमी देर से आने पर उसे ठोकर से हटा रहा है। रानी की कुछ मिन्नतों के बाद वे दोनों प्रालिंगन-बद्ध हो गये और प्रेमलीला में खो गये । यह देखकर मैं अपना आपा खो बैठा। मैं तलवार से दोनों का काम तमाम कर देना चाहता था, पर स्त्री-हत्या राजपूतों में वर्जित है, साथ ही इसमें महल की बदनामी का भी अंदेशा पाया, तो मैंने वध का विचार बदल दिया और पुनः सेज पर प्राकर नींद का बहाना करके लेट गया। मैंने इस बात को किसी से नहीं कहा। मेरा मन उदास हो गया। मुझे उदास देख माता ने इसका कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि मैंने रात में एक भयानक स्वप्न (खोटा स्वप्न) देखा है और मैं अब राज-काज छोड़ दीक्षा लेना चाहता है। इस पर मेरी मां ने ममता से मुझे ऐसा करने से स्पष्ट मना कर दिया व दुःस्वप्न की शांति हेतु

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