Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 37
________________ 32 लक्ष्मीलम्पटी और खल कैसे होते हैं ? सिलिंडहँ गत्थि कारुण्णउ । 3.15.3 लक्ष्मीलम्पटों के करुणा नहीं होती । खलु गायous पिय जंपियाइँ । 4.8.3 खल मनुष्य प्रिय वाणी नहीं सुनता । क्षुद्र का स्वभाव खुद सहुँ कि पियजपिएन । सत्तच्चिहें कि धि धिए ।। 4.9.10 क्षुद्र मनुष्य के साथ प्रियवचन बोलना उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे अग्नि में घृत डालना । आदि ऐसे विषय हैं जिनसे सुखपूर्वक जीवन-यापन के लिए योग्य निर्देश प्राप्त होते हैं। ऐसा भी कथन प्राप्त होता है कि तप यद्यपि कष्टसाध्य है परन्तु है वह उपादेय ही, हेय नहीं - क्ख वि चंगउ सुतवें करण । 8.13.7 सुतप करने से दुःख भी हो तो भी भला है । अतः गायकुमारचरिउ की सूक्तियों के साक्ष्य में कहा जा सकता है कि सूक्तियों के रूप में जीवनोपयोगी, कल्याणकारी, दिशाबोधक बहुमूल्य सामग्री देकर कवि ने न केवल सूक्तिसाहित्य को समृद्ध किया है अपितु भारतीय वाङ्मय की समृद्धि में भी चार चाँद लगाये हैं । 1. जैनविद्या 2. सतसइया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर । देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥ यथा महार्घ्यरत्नानां प्रसूतिमंकराकरात् । तथैव सूक्तरत्नानां प्रभवो स्यात्पुराणतः । सुदुर्लभं यदन्यत्र चिरादपि सुभाषितम् । सुलभं स्वरसंग्राह्यं तदिहास्ति पदे पदे ।। आचार्य जिनसेन, महापुराण - 2.116 और 122 3. सुभाषितमहामन्त्रान् प्रयुक्तान्कविमन्त्रिभिः । श्रुत्वा प्रकोपमायान्ति दुर्ग्रहा इव दुर्जनाः ।। महापुराण - वही, 1.88

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