Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ जैनविद्या 31 सोहइ कज्जारंभु समत्तिए। 9.3.6 कार्यारम्भ कार्य की समाप्ति से शोभता है । सोहह सहर सुपोरिस राहए। 9.37 सुभट पौरुष के तेज से शोभता है । सोहइ महिरहु कुसुमिय साहए। 9.3.7 वृक्ष फूलीहुई शाखाओं से शोभता है । विषयों की बोधक सूक्तियां भी इस चरित में उपलब्ध हैं । इनमें जीवनसुधारसम्बन्धी संकेतों का समावेश है। मनुष्य की धन-पिपासा कैसे शान्त हो? इस हेतु सूक्तियों में कहा गया है कि अर्थसिद्धि का कारण धर्म है। धर्म से ही पापों का क्षय तथा नाना प्रकार की संपत्तियां प्राप्त होती हैं धम्में विण ण प्रत्य साहिन्जह । 3.2.13 धर्म के बिना अर्थसिद्धि नहीं होती। किरण पाउ धम्में खविउ । 6.5.6 धर्म से किस पाप का क्षय नहीं होता ? वह धर्म कौनसा है जिससे ऐसा होता है ? इस प्रश्न के समाधान हेतु नीतियों में अहिंसामयी धर्म को प्रधानता दी गई है धम्मु अहिंसा परमु जए। 9.13 पत्ता अहिंसा धर्म ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार जीवन में धर्म के महत्त्व का प्रतिपादन कर कवि ने धर्म की उपादेयता सिद्ध की है । नीतिपूर्ण सूक्तियों में ऐसे तथ्यों को भी उद्घाटित किया गया है जिनसे कि लोग सामान्य व्यवहार का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर सकते हैं और परस्पर में प्रेमभाव बनाये रख सकते हैं । मनुष्यों का कर्तव्य है जण ण तव चरण, किउ दुहहरणु, विसए ण मणु पाउंचिउ । प्ररहु ग पुज्जियउ, मल वज्जियउ, ते अप्पारणउ, ते वंचिउ ।। 2. घत्ता 6 जिसने दुःखहारी तपश्चरण नहीं किया, विषयों से मन को नहीं खींचा एवं दोषरहित अर्हन्त को नहीं पूजा उसने अपने को ही ठगा है । परिजनों को कैसे सन्तुष्ट किया जावे ? परियणु दाणे संतोसिज्जइ । 3.3.10 परिजनों को दान से संतुष्ट करे । विघ्न के सम्बन्ध में योग्य परामर्श उवसग्गु वि हवंतु णासिज्जइ । 3.3.10 विघ्न उत्पन्न होते ही उसका विनाश करना उचित है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120