Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 34
________________ जैनविद्या विनय की महत्ता विरणएं इंदियजउ संपज्जइ। 3.2.8 विनय से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है । गुरणग्रहण सयपत्तणु सज्जणगुणगहेण, पोरिसु सरणाइयरक्खरणेण। 8.13.10 सज्जनों के गुणग्रहण से स्वजनत्व तथा शरणागतों के रक्षण से पौरुष सार्थक होता है। जीवहितैषी भावनाओं को भी सूक्तियों में पल्लवित-पुष्पित होने दिया है। सुख-दुःख के कारणभूत संसार से छूटने हेतु क्षणभंगुरता और नश्वरता का भलीभाँति बोध कराया गया है । यौवन नाशवान् है, मरण सुनिश्चित है, अच्छी वस्तुओं का योग वियोगमयी है णव जोव्वणु णासइ एइ जरा। 2.4.5 नव यौवन का नाश होता है और बुढ़ापा पाता है । उप्पण्णहो दोसइ पुणु मरणु। 2.4.6 जो उत्पन्न हुआ है उसका पुनःमरण देखा जाता है ? कि सम्र्गे खय संसग्गें। 5 11.9 उस स्वर्ग से क्या जिसका संसर्ग क्षयशाली है ? किं सोहग्गे पुणरवि भग्गें। 5.11.9 उस सौभाग्य से क्या जो फिर भग्न हो जाता है । रायत्तणु संझाराउ जिह। 6.4.8 राज्यत्व संध्याराग के समान है । चिंध खचिधु ण ढंकियउ। 6.4.10 ध्वजा-पताका से विनाश चिह्न ढका नहीं जा सकता। मरणकाल में कोई शरण नहीं है को रक्खइ बलवंतहें सरणई। 5.3.4 बलवान् के चंगुल में फंसे व्यक्ति की कौन रक्षा कर सकता है ? एउ कहिं मि मरण दिण उव्वरइ। 6.4.3 मरण के दिन कहीं भी रक्षा नहीं हो सकती । सुहु रायपट्ट बंधे वसइ किं प्राउणि बंधणु ण उल्हसइ । 6.4.4 मनुष्य राजमुकुट बांधकर सुख से वास करता है तो क्या उसका आयुबंघ क्षीण नहीं होता ? इस प्रकार के विषयों का निरूपणकर स्वहित करने के लिए सूक्तियों के माध्यम से कवि ने प्रेरणा प्रदान की है।

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