Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 33
________________ 28 जैनविद्या भाग्य की प्रबलता दइवेण कालसप्पु वि सयणु। 2.14.10 भाग्यवश काला नाग भी स्वजन बन जाता है। कर्मानुसार सुख-दुःख इह को सुत्थिउ को को दुत्थियउ । सयलुवि कम्मेण गलत्थिउ ॥ 2.4.11 इस संसार में कौन सुखी और कौन दुःखी है ? सभी कर्मों की विडम्बना में पड़े हैं। चित्त शुद्धि सुद्धचित्त वेस वि कुलउत्ती। 3.7.10 शुद्धचित्त वेश्या भी कुलपुत्री ही है । निर्मल स्वभाव की महत्ता रिणम्मलु कि परवइरें पडियउ। 9.7.5 जो निर्मल स्वभावी हैं वे दूसरों के प्रति वैरभाव के वशीभूत कैसे हो सकते हैं ? गुरु-शिष्य के प्रादर्श सम्बन्ध जुत्ताजुत्तउ गुरुयणु जारणइ । सिसु दिण्णउ पेसणु संमाणइ ।। 3.7.14 योग्य अयोग्य गुरुजन जानते हैं, शिष्य तो उनकी आज्ञा का सम्मान ही करते हैं। .. संसार की निस्सारता उज्झउं चत्तसार संसारउ । 5.11.11 संसार सारहीन और तुच्छ है । देह और स्नेह की सार्थकता कि रणेहें वढिय सिविणेहें। 5.11.10 उस स्नेह से क्या जो स्वप्नेच्छाओं का वर्द्धक है ? कि देहें जीविय संदेहें। 5.11.10 उस देह से क्या जिसमें सदैव जीवन का संदेह बना रहता है ? गुरणी के प्रति सद्भाव गुणवंतउ माणुसु भल्लउ। 3. 13. घत्ता गुणवान् मनुष्य ही भला होता है ।

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