Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 35
________________ जैन विद्या विकारोत्पादक है, धन हो तो निर्धनों का तो पालन-पोषण करे किन्तु पापियों का नहीं । पापियों को धन देना कोश को सुखाना है । धन के सम्बन्ध में कवि के विचारों में नवीनता है । वे यथार्थता को प्रकट करने में सफल हैं 30 जासु प्रत्यु सो जाइ वियाहि । 3.1.19 जिसके धन है वही विकार को प्राप्त होता है । कुत्थिय गर पोसणु कोससोसु, इहभवि परभवि तं करइ दोसु । 4.4.4 पापियों का पोषण करना अपने धनकोष को सुखाना है, वह इस भव तथा परभव में दोष उत्पन्न करता है । धणु खीणु वि विहलिय पोसणेण । मरणु वि चंगउ सण्णासणेण ।। 8.13.8 निर्धनों के पालन-पोषण में धन व्यय तथा संन्यासपूर्वक मरण होना अच्छा है । संगति उन्नति के लिए प्रावश्यक है कुसंगति नहीं होइ समुज्जवेण सुसहाएं परिसिय छत्तहय गया । अलसंतेरण पिसुरग जरग संगे गासइ राव संपया ॥। 3. 2. दुबई भली भाँति उद्यम करने से एवं सन्मित्र के सहयोग से ही छत्र, अश्व और हाथियों से सहित राज-सम्पत्ति उत्पन्न होती है तथा आलस्य करने और नीच पुरुषों की संगति से वह नष्ट हो जाती है । मुसु रिसीह कुपरिसह संगमु होइ तेग भीसणु वसरागमु । 3.3.15 कुपुरुषों की संगति छोड़ो, उससे भयंकर व्यसनों का आगमन होता है । शोभा किसकी किससे सोहइ गरवरु सच्चर वायए । 9.3.1 मनुष्य सत्य वाणी से शोभता है । सोहइ कइयणु कहए सुबद्धए । 9.3.2 कविजन सुविरचित कथा से शोभते हैं । सोहइ मुणिर्वावु मरण सुद्धिए । 9.3.9 मुनिवर मन की शुद्धि से शोभते हैं । सोहइ विहउ सपरियर रिद्धिए । 9.35 वैभव परिजनों की वृद्धि से शोभता है । सोहइ माणुसु गुण संपत्तिए । 9.3.6 मनुष्य गुणरूपी संपत्ति से शोभता है ।

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