Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 23
________________ 18 जैनविद्या पुष्पदंत जिन-भक्त हैं । "जिन" भक्ति/स्तुति के प्रसंग में उसमें अधिकतर शाश्वत मूल्यों की ही चर्चा की है । यद्यपि वे कहीं कहीं सम्प्रदाय से बंधे हुए नजर आते हैं पर उनका यह पक्ष नितान्त गौण है, जिन स्तुति के प्रसंग में कहा गया है जय खमदमसमजमणिवहरिणलय गयणयलगख्य भुमणयलतिलय । जय गुण मणिरिणहि परियलिय हरिस जय जय जिरणवर जय परम पुरिस ॥ 1.11.8-9 "पाप क्षमा, दम, शम और यमादि गुणों के समूह के निधान हैं, गगनतल के गौरव तथा भुवनतल के तिलक हैं । जय हो आपकी जो गुणरूपी मणियों की निधि हैं, हर्षरहित अर्थात् वीतराग हैं । हे परम पुरुष जिनेन्द्र, आपकी जय हो, जय हो ।” जिनस्तुति के अन्य प्रसंग में कहा गया है पइं जिण रिंगविउ विट्ठलु रणरंगु, विसएसु तुझ कि पि वि रण रंगु। तुह समु कंचणु तणु सत्तु मित्त, तुहुँ देव भुषणपंकरहमित्त । पत्ता-इय वंदिवि जिरणवर हरि हरु वियर कमलासणु गुणरयणरिणहि । तवजालाभासुर कंपावियसुरु भवकारगण रिपहरणसिहि ॥ 8.10 "हे जिनेन्द्र, आपने इस दूषित शरीर की निन्दा की है। आपका विषयों में कुछ भी अनुराग नहीं है । आपके लिए सोना और तृण तथा शत्रु और मित्र समान हैं । हे देव, पाप भुवनरूपी कमल के लिए सूर्य हैं। इस प्रकार जिन भगवान् की वंदना की जो तपरूपी अग्नि की ज्वालाओं द्वारा भास्वर होने से विष्णु, अपने तपःतेज द्वारा देवताओं को कम्पायमान करने से हर अर्थात् महादेव, अज्ञानान्धकार का नाश करनेवाले होने से सूर्य तथा अनन्तचतुष्टयरूपी दिव्य कमल में विराजमान होने से कमलासन ब्रह्मा के समान थे और जो गुणरूपी रत्नों के निधान तथा संसाररूपी कानन को दग्ध करनेवाली अग्नि के समान थे। पुष्पदंत करुणा और गुणियों की भक्ति को मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैंदुवई-कीरह परमभत्ति गुणगणहरे कारणं पि दुत्थिए । पंगुलकुंटमंटबहिरंषयरोयविसायमंथिए । 4.4 __“जो गुणसमूह को धारण करनेवाले हैं उनकी परम भक्ति करनी चाहिये और जो लँगड़े, लूले, गूंगे, बहरे, अन्धे, रोग और विषाद से ग्रस्त दुःखी अवस्था में पड़े हैं उन पर करुणा करनी चाहिये।" घत्ता-असणुल्लउ रिणवसणु देहविहूसणु गोमहिसिउलु भूमिभवणु। कारणीणहें वीणह सिरिपरिहीणहं विज्जइ कारणेण षणु ॥

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