Book Title: Jain Vidya 03
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 14
________________ गायकुमारचरिउ एक प्राद्यन्त जैन-काव्य -प्रो० डॉ० गजानन नरसिंह साठे ॥ सयम्भु भाण पुप्फयन्त णिसि-कन्त ॥ .. भारतीय साहित्य-मन्दिर में अपभ्रंश साहित्य का कक्ष बहुमूल्य देदीप्यमान रत्नों से जगमगा रहा है। चिरकाल उपेक्षित रहने पर, अपभ्रंश साहित्य की ओर जब से साहित्य-रत्नों के परीक्षकों की दृष्टि मुड़ गयी तब से उनकी चमक-दमक से उनकी आँखें चौंधिया जाती रही हैं। उनकी महत्ता को ध्यान में रखते हुए अल्पावधि में ही उस कक्ष में स्थित एक-से-एक अनूठे रत्न मर्मज्ञ पाठकों और जिज्ञासु अनुसंधान-कर्ताओं के सम्मुख अपभ्रंश के दिग्गज पण्डितों ने प्रस्तुत करना शुरू किया । ये रत्न जिन साहित्य-विधाताओं द्वारा निर्मित हैं उनमें प्रमुख हैंस्वयंभू, पुष्पदंत, धवल, हरिदेव, धाहिल, श्रीधर, रयधू ।। ____ जिस प्रकार हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में "सूर सूर तुलसी ससी" जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य-गगन की दो महिमामयी हस्तियों का यशोगान करती है, उसी प्रकार यदि कोई यह कहे कि सयम्भु भाण पुप्फयन्त गिसि-कन्त । तो इसे इन दो महाकवियों की महिमा का सम्यक् परिचायक समझने में किसी को कोई प्रापत्ति नहीं होगी। ... स्वयंभू की अपेक्षा पुष्पदंत एक दृष्टि से अधिक सौभाग्यशाली सिद्ध हो चुके हैं। स्वयंभू-विरचित दो प्रबन्धकाव्यों में से केवल “पउम-चरिउ" प्रकाशित हो चुका है, उनका

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