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प्राक्कथन
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विचार करते हैं तो इस युगमे भी ऐसे अगणित सन्त महामुनि हो गये हैं जो स्वय तीर्थकरोंके मार्गपर चलकर अपने उपदेश द्वारा उसका दर्शन कराते आ रहे है । उनमें परम पूज्य कुन्दकुन्द आचार्य प्रमुख हैं। उनके द्वारा प्रणीत समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय और नियमसार आदि ग्रंथ संसारकी चालू परिपाटीसे भिन्न आत्मस्वरूपका दर्शन कराते हैं। उनके इन उपदेशोंसे लौकिक जन विचकते है। उन्हे ऐसा मालूम पड़ता है कि जिन आधारों पर हम अपना अस्तित्व मानते आ रहे है वे खिसक रहे है । उनके खण्डित हो जाने पर हम निराधार हो जावेंगे और हमारे अस्तित्वका लोप हो जावेगा। पर उनका यह भय वृथा है । वास्तविक खतरा तो परके आश्रयमें ही है । उसे तो अनादिकालसे उठाते आये। अब तो 'स्व' की भूमिका पर आनेकी बात है । आत्मामें स्वाधीन सुखका विकाश उसीसे होगा । यह हम मानते हैं कि इस rtant अनादिकालसे परावलम्बनकी वासना बनी हुई है, इसलिए उसे छोड़नेमे दुख होता है । परन्तु स्वाधोन सुखको प्राप्त करनेके लिए पराधीनताका त्याग करना ही होगा। स्वाधीन सुखको प्राप्त करनेका अन्य कोई मार्ग नहीं है । इस दृष्टिसे आचार्य महाराजने अपने ग्रंथ में जो तात्त्विक विवेचन किया है वह जैनधर्मका प्राणभूत है । अन्य समस्त आचार्यो ने जंनधर्मके सिद्धान्तो, आचारो और विचारोके विषयमें जो कुछ भी लिखा है उसकी आधार शिला आचार्य कुन्दकुन्दकी तत्त्वप्ररूपणा ही है । इस ससारी जीवको शुद्ध आत्मतत्वकी उपलब्धि उनके बताये हुए मार्गपर चलनेसे ही होगी, इसकी प्राप्तिका अन्य कोई उपाय नही है । इस दृष्टिसे यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि इस विषयका सरल सुबोध भाषा में स्पष्टीकरण करनेके लिए तथा अन्य अनुयोगोके शास्त्रोंमे प्रतिपादित विषयोका अध्यात्मशास्त्र के साथ कैसे मेल बैठता है इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए एक पुस्तक लिखी जाय । प्रसन्नताकी बात है कि भा० द० जैन विद्वत्परिषद्का इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ और उसने अपने जबलपुरके अधिवेशनमे इस आशयका एक प्रस्माव पारित कर विद्वानोंका इस पुनीत कार्यके लिए आह्वान किया ।
उक्त आधारपर सिद्धान्तशास्त्र के मर्म वेत्ता श्रीमान् पण्डित फूलचन्द्र जी सि० शा० वाराणसीने इस ओर ध्यान देकर यह 'जनतत्त्वमीमांसा' पुस्तककी रचना की है। पण्डितजी जैन सिद्धान्नके मननीय उच्चकोटि के विद्वानों में गणनीय विद्वान है ! इन्होंने दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा लिखित मूल सिद्धान्त ग्रन्थ षट् खण्डागमका अनेक वर्षोंतक अध्ययन मनन किया