Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 20
________________ प्राक्कथन (प्रथम संस्करणसे) जैनधर्म 'जिन' का धर्म है। जिन वे है जिन्होंने अपने विकारों पर पुरुषार्थ द्वारा विजय प्राप्त कर निज स्वरूप प्राप्त कर लिया है। जैनधर्म का मुख्य नाम आत्मधर्म है। यह तो आगम, अनुभव और युक्तिसे ही सिद्ध है कि संसारमें जड़ और चेतन जितने भी पदार्थ है वे सब स्वतन्त्र हैं। जो शरीर संसारी जीवके साथ बाह्य दृष्टिसे एक क्षेत्रावगाही हो रहा है वह भी पृथक् है। वस्तुतः इस सनातन सत्यका बोध न होनेसे ही यह जीव अपने को भूला हुआ है। उसके दुखका निदान भी यही है। यद्यपि यह ससारी जीव दुखसे मुक्ति चाहता है, परन्तु जब तक आत्मा-अनात्माका भेदविज्ञान होकर इस ठीक तरहसे अपने आत्मस्वरूपको उपलब्धि नही होती तब तक इसका दुखसे निवृत्त होना असम्भव है। सबसे पहले इसे यह जानना जरूरी है कि मेरे ज्ञान-दर्शनस्वभाव आत्मासे भिन्न अन्य जितने जड़चेतन पदार्थ है वे पर है। उनका परिणमन उनमें होता है और आत्माका परिणमन आत्मामें होता है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को बलात नही परिणमा सकता। यद्यपि काकतालीय न्यायसे कभी ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता है कि हम पदार्थका जैसा परिणमन चाहते है और उसके लिए प्रयत्न करते है, पदार्थका वैसा परिणमन होता हुआ देखा जाता है, इसलिए हम मान लेते है कि इसे हमने परिणमाया, अन्यथा इसका ऐसा परिणमन न होता। किन्तु यह मानना कोरा भ्रम है और यही भ्रम संसारको जड़ है। अतएव सबसे पहले इस संसारी जीवको अपने आत्मस्वरूपकी पहिचानके साथ इसी भ्रमको दूर करना है। इसके दूर होते ही इसके स्वावलम्बनका मार्ग प्रशस्त हो जाता है। स्वालम्बनका मागं कहो या मुक्तिका मार्ग कहो, दोनो कथनोंका एक ही अभिप्राय है। अतीत कालमें जो तीर्थंकर सन्त महापुरुष हो गये है वे स्वयं इस मार्गपर चलकर मुक्तिके पात्र तो हुए ही। दूसरे संसारो प्राणियोंको भी उन्होने अपनी चर्या और उपदेश द्वारा इस सन्मार्गके दर्शन कराये। यह तो अतीत कालकी बात हुई। वर्तमान युगकी दृष्टिसे यदि

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