________________
जैनतत्त्वमीमांसा
कार्यकारिणीने इस सम्बन्धमें सर्वसम्मतिसे एक प्रस्ताव पारित किया। प्रस्ताव प० दयाचन्दजी शास्त्रो सागरवालोंने उपस्थित किया था । तथा उसका समर्थन और अनुमोदन श्रीमान् प० जोवन्धरजी न्यायतीर्थ और ७० हुकुमचन्दजीने किया था । पूरा प्रस्ताव इन शब्दोंमें है
'भारतवर्षीय दि. जै विद्वत्परिषद्के जबलपुर अधिवेशनके प्रस्ताव मख्या २ से प्रेरणा पाकर माननीय प० फूलचन्द्रजी शास्त्री वाराणसीने निमित्त-उपादान आदि विषयोपर शोधपूर्ण स्वतन्त्र पुस्तक लिखी है। शास्त्रीजीकी इच्छा थी कि इस पुस्तकपर भारतवर्षीय दि० जैन विद्वपरिषद्के द्वारा आयोजित विद्वद्गोष्ठोमे विचार विनिमय हो । तदनुसार दि. जैन समाज बोना सागरने श्रुतपचमीसे ज्येष्ठ शुक्ला १२ ( ३० मईसे ६ जून तक ) अपने यहाँ विद्वद्गोष्ठीका उत्तम आयोजन किया । दि० जैन समाजके वर्तमान इतिहासमे यह पहला अवसर था जब इतने समय तक ५ घंटै प्रतिदिन सब विचारोंके विद्वानोंने मतभेद होनेपर भी महत्त्वपूर्ण विषयोंपर गम्भीरता, तत्परता तथा सौहार्दपूर्वक विवेचन दिये और उस अवसरपर अनेक सुझाओंका आदान-प्रदान किया गया। यह कार्यकारिणी शास्त्रीजी द्वारा पुस्तक लेखनमें किये गये अथक परिश्रमकी सराहना करती है।
प्रस्तुत पुस्तकका नाम बहुत कुछ सोच विचारकर और श्रीमान् प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वानोसे सम्मति मिलाकर जनतत्त्वमीमांसा' रखा है जो उसमे प्रतिपादित विषयके अनुरूप है। इसका 'प्राक्कथन' समाजमान्य प्रसिद्ध विद्वान् पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनीने लिखा है । मेरी समझसे अपने प्राक्कथनमे उन्होंने बड़े ही व्यवस्थित ढगसे नपे-तुले शब्दोंमे उन सभी विषयोंकी चरचा कर दी है जिनका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत पुस्तकमे किया गया है। प्राक्कथनमे पण्डितजोने और भी अनेक विषयोंको प्रासगिक चरचा की है। प्रसगसे मेरे विषयमें भी दो शब्द लिखे हैं। मै उनका किन शब्दोंमें आभार मानूं यह समझके बाहर है। पण्डितजीके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हुमा इतना ही लिखना पर्याप्त है कि वस्तुत मुझमें प्रशंसाके योग्य एक भी गुण नही है । दूसरेको बढ़ावा देना इसे उनकी सहज प्रकृति ही कहनी चाहिए। उनकी ओरसे हमे प्राय. प्रत्येक कार्यमे प्रोत्साहन और सहयोग मिलता आ रहा है। उसका यह भी एक उदाहरण है।
यहाँ इतनी बात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है कि 'अशोक प्रकाशन