Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थालय
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करने लग जाते हैं। सदा इनकी ओर चित्त लगे रहने से वे जो भी क्रियाएं करते हैं वे सभी बेमन की अतएव द्रव्य रूप होता हैं। यहाँ तक कि मोह के उद्रेक से संयम का त्याग कर गृहस्थ तक वन जाते हैं। इस लये ये जहाँन हों उस उपाश्रय में साधुसा को रहना चाहिये। सामान्य रूप से कहे गये सागारिक उपाश्रय को स्त्री और पुरुष के भेद से शास्त्रकार अलग अलग बतलाते हैं।
साधुओं को स्त्री सागारिक उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता परन्तु वे. पुरुष सागारिक उपाश्रय में अपवाद रूप से रह सकते हैं। इसी प्रकार साध्वियों को पुरुष सागारिक उपाश्रय में रहनानहीं कल्पता परन्तु वे स्त्री सागारिक उपाश्रय में अपवाद रूप से रह सकती हैं।
साओं को प्रतिबद्ध शय्या (उपाश्रय)में रहना नहीं कल्पता । द्रव्य भाव के भेद से प्रतिबद्ध उपाश्रय दो प्रकार का है। गृहस्थ के घर और उपाश्रय की एक ह छत हो वह द्रव्य प्रतिबद्ध है। भाव प्रतिबद्ध श्रवण, स्थान, रूप और शब्द के भेद से चार प्रकार का है। जिस उपाश्रय में स्त्रियों और साधुओं के लिये कायिकी भूमि (लघुमात्रा की जगह) एक हो वह प्रश्रवण प्रतिबद्ध है। जहाँ स्त्रियों
और साधुओं के लिये बैठक की जगह एक हो वह स्थान प्रतिबद्ध उपाश्रय है । जिस उपाश्रय से स्त्रियों का रूप दिखाई देता है वह रूप प्रतिबद्ध है एवं जहाँ स्त्रियों की बोली, भूषणों की ध्वनि एवं रहस्य शब्द सुनाई देते हैं वह भाषा प्रतिवद्ध है। साध्वियों को दूसरा उपाश्रय न मिलने पर प्रतिबद्ध शय्या में रहना कल्पता है।
साधुओं को उस उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता जहाँ उन्हें गृहस्थों के घर में होकर आना जाना पड़ता हो । साधियाँ दूसरे उपाश्रय के अभाव में ऐसे उपाश्रय में रह सकती हैं।
६) आपस में कलह हो. जाने पर आचार्य, उपाध्याय एवं साधु साध्वियों को अपना अपराध स्वीकार कर एवं 'मिच्छामि