Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोन संग्रह, छठा भाग
उस भूमिगृह में डाला। शीघ्र ही वह मृगापुत्र उस तमाम आहार को खा गया। वह आहारतत्तण विकृत होकर पीप (राध) रूप में परिणत होकर उसके शरीर से बहने लगा। इसे देख कर गौतम स्वामी अपने मन में वेचार करने लगे कि मैंने नरक के नेरीये के प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा है किन्तु यह मृगापुत्र प्रत्यक्ष नैरयिक सरीखा दुःख भोग रहा है। इसके बाद गौतम स्वामी भगवान् के पास अकर पूछने लगे कि-भगवन् ! इसने पूर्वभव में कौन से पाप कर्म उपार्जन किए हैं ? भगवान् उसके पूर्वभत्र का वृत्तान्त फरमाने लगे।
प्राचीन समय में शतद्वार नामक एक नगर था । वहाँ धनपति राजा राज्य करता था। उसकी अधीनता में विजयवर्द्धन नाम का एक खेड़ा था। उसमें देशाधिकारी इकाई राठौड़ नाम का एक ठाकुर रहता था। वह ५०० गांवों का अधिपत था। वह प्रजा पर बहुत अत्याचार करता था । 'जा से बहुत अधिक कर लेता था। एक का अपराध दूसरे के पिर डाल देता था। अपने चार्थवश अन्याय करता था । चारों को गुम सहायता देकर गांव के गांव लुटवा देता था। इस प्रकार जनता का अनेक प्रकार से कष्ट देता था । एकसमय उस इकाई राठोड़ के शरीर में एक साथ सोलह रोग (बास, खांसी, ज्वर, दाह, कु क्षशूल, भगन्दर, अर्श (मस्सा), अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तकशूल, असाच, नेत्र पीड़ा, कर्ण वेदना, खुजली, जलोदर और कोढ़) उत्पन्न हुए । तर इकाई राठौड़ ने यह घोषणा करवाई कि जो कोई वैद्य मेरे इन मोलह रोगो में से एक भी रोग की शान्ति करेगा उसको बहुत धन दिया जायगा। इस घोषणा को सुन कर बहुत से वैद्य श्राए और अनेक प्रकर की चिकित्सा करने लगे किन्तु उनमें से एकरोग की भी शान्ति करने में समर्थ नहीं हुए प्रवल वेदना से पीड़ित हुआ वह इकाई राठौड़ मर कर रत्नप्रभा पृथ्वी में एक सागरोपम की स्थिति वाला नैरायक