Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
२२३ (गीदड़) होते हैं । वे बहुत ही क्रोधी होते हैं और सदा भूखे रहते हैं। पास में रहे हुए तथा जंजीरों में बंधे हुए नारकी जीवों को वे निर्दयतापूर्वक खा जाते हैं।
(२१) नरक में सदाजला (जिसमें हमेशा जल रहता है। नामक एक नदी है । वह बड़ी ही कष्टदायिनी है । उसका जल क्षार, पीव और रक्त से सदा मलिन तथा पिघले हुए लोहे के समान अति उष्ण होता है । परमाधार्मिक देव नारकी जीवों को उस पानी में डाल देते हैं और वेत्राण शरण रहित होकर उसमें तिरते रहते है।
२२) नारकी जीवों को इस प्रकार परमाधार्मिक देव कृत, पारस्परिक तथा स्वाभाविक दुःख चिरफाल तक निरन्तर होते रहते हैं। उनकी आयु बड़ी लम्बी होती है। अकेले ही उन्हें सभी दुःख भोगने पड़ते हैं। दुःख से छुड़ाने वाला वहाँ कोई नहीं होता।
२३) जिस जीव ने जैसे कर्म किये हैं वे ही उसे दूसरेभव में पाप्त होते हैं । एकान्त दुख रूप नरक योग्य कर्म करके जीव को नरक के अनन्त दुःख भोगने पड़ते हैं।
(२४) नरकों में होने वाले इन दुःखों को सुन कर जोवादि तत्वों में श्रद्धा रखता हुआ बुद्धिमान् पुरुष किसी भी प्राणी की हिसा न करे। मृपावाद, अदत्तादान मैथुन और परिग्रह का त्याग करतथा क्रोधादि कपापों का स्वरूप जानकर उनके वश में नहो।
(२५) अशुभ कर्म करने वाले प्राणियों को तिर्यश्च, मनुष्य और देव भव में भी दुःख प्राप्त होता है । इस प्रकार यह चार गति चाला अनन्त संसार है जिसमें प्राणी कर्मानुसार फल भोगता रहता है । इन सब बातों को जानकर चुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि यावज्जीवन सयम का पालन करे। (सूयगडाग सूत्र अध्य० ५ उ० २) ६४२-आर्य क्षेत्र साढ़े पच्चीस जिन क्षेत्रों में तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुषों का जन्म