Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग २३५ सो अत्यो वत्तव्यो जो भएणइ अक्खरेहिं थोवेहिं । जो पुण थोवो बहुं अक्सरेहिं सो होइ निस्सारो ।।
अर्थ-साधु वही अर्थ कहे जो अल्प अक्षरों में कहा जाय । जो अर्थ थोड़ा होकर बहुत अक्षरों में कहा जाता है वह निस्सार है।
(२४) जो अर्थ थोड़े शब्दों में कहने योग्य नहीं है उसे साधु विस्तृत शब्दों से कह कर समझावे । गहन अर्थ को सरल हेतु
और युक्तियों से इस प्रकार समझा कि अच्छी तरह श्रोता की समझ में आजाय । गुरु से यथावत् अर्थ को समझ कर साधु अाज्ञा से शुद्ध वचन बोले तथा पाप का विवेक रखे।
(२५) साधु तीर्थङ्कर कथित वचनों का सदा अभ्यास करता रहे, उनके उपदेशानुसार ही बोले तथा साधु मर्यादा का अतिक्रमण न करे । श्रोता की योग्यता देख कर साधु को इस प्रकार धर्म का उपदेश देना चाहिए जिससे उसका सम्यक्त्व दृढ़ हो
और वह अपसिद्धान्त को छोड़ दे । जो साधु उपरोक्त प्रकार से उपदेश देना जानता है वही सर्वज्ञोक्त भाव समाधि को जानता है।
(२६) साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे तथा शास्त्र के सिद्धान्त को न छिरावे । गुरु भक्ति का ध्यान रखते हुए जिस प्रकार गुरु से सुना है उसी प्रकार दूसरे के प्रति सूत्र की व्याख्या करे किन्तु अपनी कल्पना से सः एवं अर्थ को अन्यथा न कहे।
(२७) अध्ययन को समाप्त करते हुए शास्त्रकार कहते हैंजो साधु शुद्ध सूत्र आर अर्थ का कथन करता है अर्थात् उत्सर्ग के स्थान म उत्सग र धर्म - और अपवाद के स्थान में अपचाद रूप धर्म का कथन करता है वहां पुस्मशहावाक्य है अर्थात् उसी की बात मानने योग्य है। इस प्रार सूत्र और अर्थ में निपुण और विना विचारे कार्य न करने वाला पुरुष ही सर्वज्ञोक्त भाव समाधि को प्राप्त करता है। (स्यगडाग
म ण्यन १४)